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विनय-पत्रिका-186| कौन जतन बिनती करिये। पद संख्या- 186 |Vinay Patrika-186।

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कौन जतन बिनती करिये।  निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये। भावार्थ :- हे नाथ ! मैं किस प्रकार आपकी विनती करूँ ?  जब अपने (नीच) आचरणों पर विचार करता हूँ और समझता हूँ, तब हृदय में हार मानकर डर जाता हूँ ( प्रार्थना करने का साहस ही नहीं रहा जाता )।। जेहि साधन हरि ! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये। जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये।। भावार्थ :-  हे हरे ! जिस साधनसे आप मनुष्यको दास जानकर उसपर कृपा करते हैं, उसे तो मैं हठपूर्वक छोड़ रहा हूँ। और जहाँ विपत्तिके जालमें फँसकर दिन-रात दुःख ही मिलता है, उसी (कु) - मार्गपर चला करता हूँ।। जानत हूँ मन बचन करम पर- हित किन्हें तरिये। सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये।। भावार्थ :- यह जानता हूँ कि मन, वचन और कर्मसे दूसरों की भलाई करनेसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा, पर मैं इससे उलटा ही आचरण करता हूँ, दूसरोंके सुखको देखकर बिना ही कारण (ईष्याग्निसे) जला जा रहा हूँ।। श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये। निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये।। भावार्थ :-  वेद -पुराण सभी का यह सिद्धांत है कि खूब दृढ़तापूर्वक सत्संग का आश्