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विनय पत्रिका-126-मन मेरे, मानहि सिख मेरी-Vinay Patrika-126-Man Mere Manhi Sikh Meri

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मन मेरे, मानहि सिख मेरी ।            जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥           भावार्थ :— हे मेरे मन! यदि तू अपने हृदयमें भगवान्की शक्ति चाहता है, ते मेरी सीख मान ॥ १ ॥  उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते ।            सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥            भावार्थ:-  भगवान्ने (गर्भवाससे लेकर अबतक) तेरे ऊपर जो (अपार) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर ॥ २ ॥  दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई।            सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥            भावार्थ :-  सुख-दुःख, मान-अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी ॥ ३ ॥  सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही ।            जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४॥           भावार्थ :-  अरे दुष्ट! इस शरीरको तो कालने ग्रस ही रखा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे ॥ ४॥   तुलसिदास बिनु असि मति आये ।            मिलहिं न राम कपट लौ लाये ॥ ५॥           भावार्थ :- तुलसीदास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट-समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं ॥ ५ ॥

विनय पत्रिका-90।ऐसी मूढ़ता या मनकी।Vinay patrika-90।Aisi Mudhta Ya Manki।

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ऐसी मूढ़ता या मनकी। परिहरि राम-भगति-सुरसरिता, आस करत ओसकनकी  ॥ भावार्थ :-  इस मनकी मन की ऐसी मूर्खता है कि यह श्रीराम-भक्तिरूपी गंगाजीको छोड़कर ओसकी बूंदोंसे तृप्त होने की आशा करता है। धूम-समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी । नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥  भावार्थ :-  जैसे प्यासा पपिहा धुएँका गोट देखकर उसे मेघ समझ लेता है, परंतु वहां (जानेपर) न तो उसे शीतलता मिलती है और न जल मिलता है, धुएँसे आंखें और फुट जाती हैं। (यही दशा इस मन की है)। ज्यों गच-काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी ।  टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ भावार्थ :-  जैसे मूर्ख बाज कांचकी फर्शमें अपने ही शरीरकी परछाई देखकर उसपर चोंच मारनेसे वह टूट जाएगी इस बातको भूखके मारे भूलकर जल्दीसे उसपर टूट पड़ता है (वैसे ही यह मेरा मन भी विषयोंपर टूट पड़ता है)। कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी । तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ भावार्थ :-  हे कृपाके भंडार! इस कुचालका मैं कहांतक वर्णन करूं? आप तो दासोंकी दशा जानते ही हैं । हे स्वामीन्! तुलसीदास का

विनय पत्रिका-97। जौ पै हरि जनके औगुन गहते।Vinay patrika-97।Jau Pai Hari Janke Augun Gahte-97

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जौ पै हरि जनके औगुन गहते।      तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते।।      भावार्थ :-   (आप दासोंके दोषोंपर ध्यान नहीं देते) हे रामजी! यदि आप दासोंका दोष मनमें लाते तो इंद्र, दुर्योधन और बालिसे  हठ करके क्यों शत्रुता मोल लेते?।। जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते।      तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते।।      भावार्थ :-  यदि आप जप, यज्ञ, योग, व्रत आदि छोड़कर केवल प्रेम ही न चाहते तो देवता और श्रेष्ठ मुनियोंको त्यागकर ब्रजमें गोपोंके घर किसलिए निवास करते ?।। जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते।      तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबाहते।।    भावार्थ :-  यदि आप जहां-तहां भक्तों का प्रण रखकर भजनका प्रभाव न बखानतें तो, हम-सरीखे मूर्खोंका कलयुगके कठिन कर्म-मार्ग में किस प्रकार निर्वाह होता?।। जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते।      तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते।।      भावार्थ :-  हे संकटहारी! यदि आपने पुत्रके संकेत से नारायणका नाम लेनेवाले अजामिलके अनंत पापोंको भस्म ना किया होता, तो यमदूत हम सरीखे बैलोंको खोज-खोजकर हलमें ह

विनय पत्रिका-93। कृपा सो धौं कहाँ बिसारीं राम।Kripa So Dhaun Kaha Bisari Ram। Vinay Patrika-93।

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कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम। जेहि करुणा सुनी श्रवण दीन-दुख धावत हौ तजि धाम।।  भावार्थ :-  हे श्रीरामजी! आपने उस कृपा को कहां भुला दिया, जिसके कारण दिनोंके दु:खकी करुण-ध्वनि कानोंमें पढ़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ाकरते हैं । नागराज निज बल बिचारी हिय, हारि चरण चित दीन्हों। आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न किन्हों।। भावार्थ :- जब गजेंद्रने अपने बलकी ओर देखकर और हृदयमें हार मानकर आपके चरणोंमें चित लगाया, तब आप उसकी आर्त्त पुकार सुनते ही गरुणको छोड़कर तुरंत वहां पहुंचे, तनिक-सी भी देर नहीं की  । दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिज्ञा राखी।      अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी।।    भावार्थ :- हिरण्यकशिपुसे रात-दिन भयभीत रहनेवाले प्रहलादकी प्रतिज्ञा आपने रखी, महान् बलवान् सिंह और मनुष्यका-सा (नृसिंह) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है । भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्वो नर-नारी।      बसन पुरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी।।      भावार्थ :-  'नर' के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजभवनमें (अपनी लज्जा ज

विनय पत्रिका-96| जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके|Jau Pai Jiy Dharihau Avgun Jan Ke| Vinay patrika-96|

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जौ पै जिय धरिहौ अवगुन  जनके।      तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अद्य-बनके।।      भावार्थ :-  हे नाथ!  यदि आप इस दासके दोषोंपर ध्यान देंगे, तब तो पुन्यरूपी नखसे पापरूपी बड़े-बड़े वनोंके समूह मुझसे कैसे कटेंगे ? (मेरे जरा-से पुण्यसे भारी-भारी पाप कैसे दूर होंगे?) कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके।      हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके।।      भावार्थ :-  मन, वचन और शरीरसे किए हुए मेरे पापोंका वर्णन भी कौन कर सकता है? एक-एक छणके पापोंका हिसाब जोड़नेमें अनेक से शेष, सरस्वती और वेद हार जाएंगे।। जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके।      तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके।।      भावार्थ :-  (मेरे पुण्योंके भरोसे तो पापोंसे छूटकर उद्धार होना असंभव है) यदि आपके मनमें अपने नामकी महिमा और पतितोंको पावन करनेवाले अपने गुणोंका स्मरण आ जाए तो आप इस तुलसीदासको यमदूतोंके दांत तोड़कर संसार -सागरसे अवश्य वैसे ही तार देंगे, जैसे अजामिल ब्राह्मणको तार दिया था।। यह भी पढ़े श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित  विनय पत्रिका   पद-95 , तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं । लिंक

विनय पत्रिका-99| बिरद गरीब निवाज रामको|Birad Garib Nivaj Ramko| Vinay patrika-99|

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बिरद गरीबनिवाज रामको।      गावत वेद-पुराण, सम्भु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको।। भावार्थ :-  श्री रामजी का बना ही गरीबों को निहाल कर देना है। वेद, पुराण, शिवजी, सुखदेवजी आदि यही गाते हैं। उनके श्रीरामनाम का प्रभाव तो प्रत्यक्ष ही है।। ध्रुव, प्रह्लाद, बिभीषन, कपिपति, जड़, पतंग, पांडव, सुदामको।      लोक सुजस परलोक सुगति, इन्हमे को है राम कामको।। भावार्थ :-  ध्रुव, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, जड़ (अहल्या), पक्षी (जटायु, काकभुशुण्डि), पाँचों पाण्डव और सुदामा इन सबको भगवान् ने इस लोकमें सुंदर यश और परलोकमें सद्गति दी। इनमेंसे रामके कामका भला कौन था?।। गनिका, कोल, किरात, आदिकबि इंहते अधिक बाम को।      बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको।। भावार्थ :-  गणिका(जीवंती), कोल-किरात(गुह-निषाद आदि) तथा आदिकवि बाल्मीकि, इनसे बुरा कौन था? अजामिलने कब अश्वमेधयज्ञ किया था, गजराज ने कम सामवेदका गान किया था?।। छली, मलीन, हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।      नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको।। भावार्थ :-  तुलसीके सामान कपटी, मलिन, सब साधनोंसे हीन, दुबला-पतला और कौन है? पर श्रीरामके नामरू

विनय पत्रिका-98 | ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। Vinay patrika-98, पद98

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ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। निज प्रभुता बिसारि जनके बस,  होत सदा यह रीति।। भावार्थ :-  श्रीहरि अपने दास पर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूलकर उस भक्तके ही अधीन हो जाते हैं। उनकी यह रीति सनातन है।। जिन बांधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी। सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठी बांध्यो सकत न छोरी।। भावार्थ :- जिस परमात्माने देवता, दैत्य, नाग और मनुष्योंको कर्मोंकी बड़ी मजबूत डोरीमें बांध रखा है, उसी अखंड पर ब्रह्माको यशोदाजीने प्रेमवस जबरदस्ती (ऊखलसे) ऐसा बांध दिया कि जिसे आप खोल भी  नहीं सके।। जाकी मायाबस बिरंची सिव, नाचत पार न पायो। करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिंह सोइ नाच नचायो।। भावार्थ :- जिसकी मायाके वश होकर ब्रह्मा और शिवजी ने नाचते-नाचते उसका पार नहीं पाया उसीको गुप्म गोप-रमणीयों ने ताल बजा-बजाकर (आंगनमें ) नचाया।। बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, वेद-बिदित यह लिख। बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज मांगी भीख।। भावार्थ :- वेदका यह सिद्धांत प्रसिद्ध है कि भगवान सारे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और तीनों लोकोंके अधिश्वर हैं, ऐसे प्रभुकी भी

विनय पत्रिका-85। मन ! माधवको नेकु निहारहि। Vinay patrika,पद 85

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मन! माधवको नेकु निहारहि। सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों,  छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।। भावार्थ :- हे मन ! माधवकी ओर तनिक तो  देख! अरे दुष्ट! सुन, जैसे कंगाल क्षण-क्षणमें अपना धन संभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजी का समरण किया कर।। सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदरहि। रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि।। भावार्थ :- वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सद्गुणोंके स्थान हैं। वे सुंदर और बड़े दानी हैं। संतोको  प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं।। जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-परही। तौ जनि तुलसीदास निसि -बासर हरि-पद-कमल बिसरहि।। भावार्थ :- यदि तू बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और संयमके संसार-सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास! रात-दिनमें श्रीहरिके चरण-कमलोंको कभी मत भूल।। https://amritrahasya.blogspot.com/2021/01/vinay-patrika-73.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/95-vinay-patrika.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/96.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/98-vinay-patrika-98.html

विनय पत्रिका-211।कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। पद संख्या- 211 Vinay Patrika।

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कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे, तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उध्दरहुगे || भावार्थ :- हे रघुवंशमणि!  कभी आप  मुझपर भी वही कृपा करेंगे, जिसके प्रतापसे व्याध (वाल्मीकि) गजेंद्र, ब्राह्मण अजामिल और अनेक दुष्ट संसारसागरसे तर गए? हे नाथ! क्या आप मुझे भी उन्हीं पापियोंके समान समझकर मेरा भी उद्धार करेंगे ?।। जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि, अधम आचरण कछु हृदय नहि धरहुगे | दिनहित ! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे।। भावार्थ :- अनेक योनियों में जन्म ले-लेकर मैंने नाना प्रकारके दुष्ट कर्म किए हैं। आप मेरे नीचे आचरणोंकी बात तो हृदयमें लाएंगे? हे दिनोंका हित करनेवाले! क्या आप किसीसे भी ना जीते जाने, सबके मनकी बात जानने, सब कुछ करने में समर्थ होने और शरणागतों की रक्षा करने आदि अपने गुणोंका कोमल स्वभावसे अनुसरण करेंगे? (अर्थात अपने इन गुणोंकी ओर देखकर, मेरे पापोंसे घृणा कर, मेरे मनकी बात जानकर अपनी सर्वशक्तिमत्तासे मुझ शरणमें पड़े हुए का उधार करेंगे?)।। मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली       सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे। जोग-जप

विनय पत्रिका-95 | तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं।Tau N Mere Agh-Avgun Ganihain| vinay Patrika-95|

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तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं। जौ जमराज काज सब परिहरि,  इहै ख्याल उर अनिहैं।। भावार्थः-  हे श्रीरामजी! यदि यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पापों और दोषोंके हिसाब -किताबका खयाल करने लगेंगे, तब भी उनको गेम गिन नहीं सकेंगे (क्योंकि मेरे पापों की कोई सीमा नहीं है) ।  चलिहैं छुटि पुंज पापिनके,  असमंजस जिय जनिहैं। देखि खलल अधिकार प्रभुसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं।। भावार्थः- (और जब वह मेरे हिसाबमें लग जाएंगे, तब उन्हें इधर उलझे हुए समझकर) पापियोंके दल- के- दल छूटकर भाग जाएंगे। इससे उनके मनमें बड़ी चिंता होगी। (मेरे कारणसे ) अपने अधिकारमें बाधा पहुंचते देखकर भगवानके दरबारमें अपने को निर्दोष साबित करनेके लिए) वह आपके सामने मेरी बहुत बढ़ाई कर देंगे (कहेंगे की तुलसीदास आपका भक्त है, इसने कोई पाप नहीं किया, आपके भजनके प्रतापसे इसने दूसरे पापियोंको भी पाप के बंधन से छुड़ा दीया)।। हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-शिरोमनि मनिहैं। ज्यों त्यों तुलसीदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं।। भावार्थः- तब आप हंसकर अपने भक्त यमराजका विश्वास कर लेंगे और मुझे भक्तों में शिरोमणि मान लेंगे ।बात यह है कि हे क

विनय-पत्रिका-186| कौन जतन बिनती करिये। पद संख्या- 186 |Vinay Patrika-186।

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कौन जतन बिनती करिये।  निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये। भावार्थ :- हे नाथ ! मैं किस प्रकार आपकी विनती करूँ ?  जब अपने (नीच) आचरणों पर विचार करता हूँ और समझता हूँ, तब हृदय में हार मानकर डर जाता हूँ ( प्रार्थना करने का साहस ही नहीं रहा जाता )।। जेहि साधन हरि ! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये। जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये।। भावार्थ :-  हे हरे ! जिस साधनसे आप मनुष्यको दास जानकर उसपर कृपा करते हैं, उसे तो मैं हठपूर्वक छोड़ रहा हूँ। और जहाँ विपत्तिके जालमें फँसकर दिन-रात दुःख ही मिलता है, उसी (कु) - मार्गपर चला करता हूँ।। जानत हूँ मन बचन करम पर- हित किन्हें तरिये। सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये।। भावार्थ :- यह जानता हूँ कि मन, वचन और कर्मसे दूसरों की भलाई करनेसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा, पर मैं इससे उलटा ही आचरण करता हूँ, दूसरोंके सुखको देखकर बिना ही कारण (ईष्याग्निसे) जला जा रहा हूँ।। श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये। निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये।। भावार्थ :-  वेद -पुराण सभी का यह सिद्धांत है कि खूब दृढ़तापूर्वक सत्संग का आश्

विनय-पत्रिका-73 जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जमीनी। पद संख्या- 73| Vinay Patrika-73 |

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जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी। देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी।। भावार्थ :-  अरे मूर्ख जीव! जाग, जाग, ! इस संसाररूपी रात्रिको देख ! शरीर और घर -कुटुम्ब के प्रेम को ऐसा क्षणभंगुर समझ जैसे बादलों के बीच की बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है।। सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-सन्ताप रे। बुड्यो मृग-बारि खायो जेवरिको साँप रे।। भावार्थ :- (जागने के समय ही नहीं) तू सोते समय सपनेमें भी संसार के कष्ट ही सह रहा है; अरे ! तू भ्रमसे मृग-तृष्णा के जलमें डूबा जा रहा है और तुझे रस्सीका सर्प डँस रहा है।। कहैं बेद-बुध, तू तो बुझि मनमानहिं रे। दोष-दुख सपने के जागे ही पै जाहिं रे।। भावार्थ :-  वेेद और विद्वान् पुकार-पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मनमें विचार कर समझ ले कि स्वप्नके सारे दुःख और दोष वास्तवमें जागनेपर ही नष्ट होते हैं।। तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे। राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे।। भावार्थ :-  हे तुलसी ! संसारके तीनों ताप अज्ञानरूपी निद्रासे जागने पर ही नष्ट होते हैं और तभी श्रीराम-नाममें  अहैतुकी स्वाभाविक विशुद्ध प्रीति उत्पन्न होती है।। https://amritrahasya.blogspot.com/2

विनय-पत्रिका-118। हे हरि! कवन जतन सुख मानहु। | Vinay Patrika | पद संख्या-118

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हे हरि! कवन जतन सुख मानहु। ज्यों गज- दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु।। भावार्थ :-  हे हरे! मैं किस प्रकार सुख मानूँ? मेरी करनी हाथी के दिखावटी दाँतोंके समान है, यह सब तो तुम भलीभाँति जानते ही हो। भाव यह है कि जैसे हाथी के दाँत दिखाने के और तथा खाने के और होते हैं, उसी प्रकार मैं भी दिखाता कुछ और हूँ और करता कुछ और ही हूँ।। जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे। रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद- सुख पाइय कैसे।। भावार्थ :-  मैं दूसरों से जो कुछ कहता हूँ वैसा ही स्वयं करने में भी लगूँ तो भव-सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेकी भाँति अनायास ही तर जाऊँ। परन्तु करूँ क्या ? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता हूँ कुछ और ही। फिर भला तुम्हारे चरणोंका या परमपदका आनन्द कैसे मिले? || देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी। सबिष उरग- आहार , निठुर अस, यह करनी वह बानी।। भावार्थ :-  मोर देखनेमें तो सुन्दर लगता है और मीठी वाणी से अमृतसे सने हुए-से वचन बोलता है; किन्तु उसका आहार जहरीला साँप है! कैसा निष्ठुर है! करनी यह और कथनी वह! (यही मेरा हाल है) अखिल- जीव- वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल- अनुरा

विनय-पत्रिका-119| हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।He Hari!Kavan Jatan Bhram Bhage| पद संख्या-119 | Vinay Patrika-119

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हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै। देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाव नहिं त्यागै।। भावार्थ :- हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, नित्य पवित्र और सुखरूप माननेका) भ्रम किस उपायसे दूर होगा ? देखता है, सुनता है, सोचता है, फिर भी मेरा यह मन अपने स्वभाव को छोड़ता। (और संसार को सत्य सुखरूप मानकर बार-बार विषयों में फँसता है) ।। भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई। कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई।। भावार्थ :-  भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी साधन इस मनको शान्त करने के उपाय हैं, परन्तु मेरे हृदय से तो यही वासना कभी नहीं जाती कि 'कोई मुझे अच्छा कहे' अथवा 'मुझे कुछ दे।' (ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के साधकों के मनमें भी प्रायः बड़ाई और धन-मान पानेकी वासना बनी ही रहती है)।।  जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै। निज करनी बीपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै।। भावार्थ :-  जिस (संसाररूपी) रातमें सब जीव सोते हैं उसमें केवल आपका कृपापात्र जन जागता है। किन्तु मुझे तो अपनी करनी को बिलकुल ही विपरीत देखकर बड़ा भारी भय लग रहा है।। जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत

विनय पत्रिका-92। माधवजू, मोसम मंद न कोऊ। पद संख्या- 92 । Vinay Patrika

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माधव जू, मोसम मन्द न कोऊ। जद्यपि मीन-पतंग हिनमती, मोहि नहिं पूजैं ओऊ।। भावार्थ :-  हे माधव! मेरे समान मूर्ख कोई भी नहीं है।यद्यपि मछली और पतंग हीन बुद्धि हैं, परन्तु वो भी मेरी बराबरी नहीं कर सकते।। रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो। देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयानयो।। भावार्थ :-  पतंग ने सुंदर रूपके वश हो दीपकको अग्नि नहीं समझा और मछली ने आहारके वश हो लोहेके काँटा नहीं जाना , परंतु मैं तो विषयों को प्रत्यक्ष विपत्तिरूप देखकर भी नहीं छोडता हूँ (अतएव मैं उनसे अधिक मूर्ख हूँ )  महामोह-सरिता अपार महँ, सन्तत फिरत बह्यो। श्रीहरि-चरण -कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यौ।। भावार्थ :- महमोह रूपी अपार नदी में निरंतर बहता फिरता हूँ | (इससे पार होनेके लिए ) श्री हरि के चरण-कमल रूपी नौकाको तजकर बार-बार फेनोंको (अर्थात क्षडभंगुर भोगों को ) पकड़ता हूँ  || अस्थि पुर तन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै  | निज तालुगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ||      भावार्थ :- जैसे बहुत भूखा कुत्ता पुरानी सुखी हड्डी को मुंहमें भरकर पकड़ता है और अपने तालुमें रगड़ लगनेसे जो खून निकलता है,

विनय पत्रिका-101 | जाऊँ कहाँ तजी चरण तुम्हारे | Vinay patrika-101| पद संख्या १०१

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     जाऊँ  कहाँ  तजि चरण तुम्हारे | काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दिन पियारे ||          भावार्थ :- हे नाथ-आपके चरणों को छोडकर और कहाँ जाऊँ?  संसारमें 'पतित पावन' नाम और किसका है ? (आपकी भाँति ) दिन -दुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं ?|| कौने देव बराइ बिरद -हित, हठी हठी अधम उधारे | खग, मृग , ब्याध, पषन, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ||            भावार्थ :- आजकल किस देवताने अपने बानेको रखने के लिए हठपूर्वक चुन-चुनकर निचों का उद्धार किया है ? किस देवताने पक्षी (जटायु)पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर(अहल्या), जड वृक्ष(यमलार्जुन) और यवनों का उद्धार किया है ?। देव,दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब , माया-बिबस बिचारे | तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ||            भावार्थ :- देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मानुष आदि सभी बेचारे मायके वश हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बन्धनको कैसे खोल सकता है) इसलिए हे प्रभु! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथों में सौंपकर क्या करे? ।। श्री सिता राम! 🙏 कृपया लेख पसंद आये तो अपना विचार कॉमेंट बॉक्स में जरूर साझा करें ।    इसे शेयर करें, जि

विनय पत्रिका- 94। काहे ते हरि मोहिं बिसारो।Kahe Te Hari Mohi Bisaro। Vinay Patrika-94।

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     काहे ते हरि मोहिं बिसारो। जानत निज महिमा मेरे अघ , तदपि न नाथ सँभारो।।      भावार्थ :- हे हरे! आपने मुझे क्यों भुला दिया?  हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनों को ही जानते हैं। तो भी मुझे क्यों नहीं संभालते।।      पतित- पुनीत, दीनहित, असरन- सरन कहत श्रुति चारो। हौं नहीं अधम, सभीत, दिन? किधौं बेदन मृषा पुकारो?।।      भावार्थ :-  आप पतितों को पवित्र करने वाले, दिनों के हितकारी और अशरण को शरण देने वाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं। तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ? अथवा क्या वेदों की यह घोषणा ही झूठी है?।।      खग- गनिका- गज- व्याध-पाँति जहँ हौं हूँ बैठरो। अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पतवारो फारो।। भावार्थ :-  (पहले तो) मुझे आपने पक्षी( जटायु गृर्ध) गणिका(जीवन्ती), हाथी और व्याध (वाल्मिकी) की पंक्तिमें बैठा लिया। यानी पापी स्वीकार कर लिया। अब हे कृपानिधान! आप किसकी शर्म करके मेरी पारसी हुई पत्तल फाड़ रहे हैं।।      जो कलिकाल प्रबल अति होतो , तुव निदेसतें न्यारो। तौ हरि रोष भरोस दोष गुन हेति भजते तजि गारो।।      भावार्थ :-  यदि कलिकाल आपसे अधिक बलवान होता और आप

विनय पत्रिका-66।राम जपु, राम जपु,राम जपु बाबरे।Ram Japu,Ram Japu,Ram Japu बबरे|Vinay Patrika-66।

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राम जपु, राम जपु, राम जपु बाबरे। घोर भव- नीर- निधि नाम निज नाव रे।। भावार्थः-  अरे पागल! राम जप, राम जप, राम जप। इस भयानक संसाररूपी समुद्र से पार उतरनेके लिये श्रीरामनाम ही अपनी नाव है। अर्थात इस रामनाम रूपी नावमें बैठकर मनुष्य जब चाहे तभी पार उतर सकता है, क्योंकि यह मनुष्य के अधिकार में है।। एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे। ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम- समाधि रे।। भावार्थः-  इसी एक साधन के बलसे सब ऋद्धि-सिद्धियों को साध ले, क्योंकि योग, संयम और समाधि आदि साधनों को कलिकाल रूपी रोगने ग्रस लिया है।। भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे। राम नाम ही सों अंत सब ही को काम रे।। भावार्थः- भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो, अन्तमें सबको एक रामनाम से ही काम पड़ेगा।। जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे। धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे।। भावार्थः-  यह जगत भ्रमसे आकाश में फले-फूले दिखनेवाले बगीचे के समान सर्वथा मिथ्या है, धुएँ के महलों की भाँति क्षण-क्षणमें दिखने और मिटनेवाले इन सांसारिक पदार्थों को देखकर तू भूल मत ।। राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे। तुलसी परोसो त्यागि मांगै कूर

विनय पत्रिका 252| तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । Pad No-252 Vinay patrika| पद संख्या 252 ,

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      तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । मौसम कुटिल- मौलिमनि नहिं जग, तुमसम हरि! न हरन कुटिलाई ।।          भावार्थ - हे  महाराज रामचन्द्रजी! आपके समान तो कोई दिनोंका कल्याण करनेवाला बंधू नहीं है और मेरे समान कोई दिन नहीं है! मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं है || हौं मन- बचन- कर्म पटक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई। हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ- हित, चित यही सुरति कबहुँ नहिं जाई।।           भावार्थ - मैं मनसे, वचनसे और कर्म से पापोंमें रत हूँ और हे कृपालो! आप पापियोंको परमगति देनेवाले हैं | मैं अनाथ हूँ और हे प्रभु  आप अनाथों का हिट करनेवाले हैं | यह बात मेरे मन से कभी नहीं जाती || हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई। हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई।।           भावार्थ - मैं दुःखी हूँ, आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं| आपका यश यह वेद-पुराण गा रहे हैं| मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं| (आपके और मेरे इतने संबन्ध होनेपर भी) क्या कार

विनय पत्रिका 270 कबहुँ कृपा करि रघुबीर ! Pad No-270 Vinay patrika| पद संख्या -270

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कबहुँ कृपा करि रघुबीरसिदास ! मोहू चितैहो |     भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि ! अवगुन अमित बितैहो  ||      भावार्थ :- हे ! रघुबीर ! कभी कृपा कर मेरी ओर भी देखेंगे ? हे दयानिधान ! 'भला-बुरा जो कुछ भी हूँ , आपका दास हूँ ', अपने मनमें इस बात को समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अंत कर देंगे ? (अपनी दया से मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगें ?)|| जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो | हौं सनाथ ह्वैहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ||       भावार्थ :-  (अबसे पूर्व)  प्रत्येक जन्म में यह मन मुझे जीतता चला आया है (मैं इससे हारकर विषयोंमें फँसता रहा हूँ ), इस बार क्या आप मुझे इससे जीता देंगे ?) (क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणों में लग जाएगा ?) (तब) मैं तो सनाथ  हो ही जाऊंगा किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रता से नहीं डरेंगे,तो 'अनाथ-पति' पुकारे जाने लगेंगे (मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ- नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा )|| बिनय करों अपभयहु तेन, तुम्ह परम हिते हो |  तुलसि दास कासों कहै, तुमही सब मेरे , प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो ||      भावार