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भक्त नामावली- Bhakt Namavali-mukhy mahant Kam Rati Ganpati

 भक्त नामावली           हमसों इन साधुन सों पंगति। जिनको नाम  लेत दुःख छूटत, सुख लूटत तिन संगति।। मुख्य महंत काम रति गणपति, अज महेस नारायण। सुर नर असुर मुनि पक्षी पशु, जे हरि भक्ति परायण।। वाल्मीकि नारद अगस्त्य शुक, व्यास सूत कुल हीना। शबरी स्वपच वशिष्ठ विदुर, विदुरानी प्रेम प्रवीणा।। गोपी गोप द्रोपदी कुंती, आदि पांडवा ऊधो। विष्णु स्वामी निम्बार्क माधो, रामानुज मग सूधो।। लालाचारज धनुरदास, कूरेश भाव रस भीजे। ज्ञानदेव गुरु शिष्य त्रिलोचन, पटतर को कहि दीजे।। पदमावती चरण को चारन, कवि जयदेव जसीलौ। चिंतामणि चिदरूप लखायो, बिल्वमंगलहिं रसिलौ।। केशवभट्ट श्रीभट्ट नारायण, भट्ट गदाधर भट्टा। विट्ठलनाथ वल्लभाचारज, ब्रज के गूजरजट्टा।। नित्यानन्द अद्वैत महाप्रभु, शची सुवन चैतन्या। भट्ट गोपाल रघुनाथ जीव, अरु मधु गुसांई धन्या।। रूप सनातन भज वृन्दावन, तजि दारा सुत सम्पत्ति। व्यासदास हरिवंश गोसाईं, दिन दुलराई दम्पति।। श्रीस्वामी हरिदास हमारे, विपुल विहारिणी दासी। नागरि नवल माधुरी वल्लभ, नित्य विहार उपासी।। तानसेन अकबर करमैति, मीरा करमा बाई। रत्नावती मीर माधो, रसखान रीति रस गाई।। अग्रद

श्री राम चालीसा। श्री रघुवीर भक्त हितकारी।Sri Ram Chalisa-Sri Raghuvir Bhakt Hitkari।

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श्री राम चालीसा (हिन्दी/English) श्री रघुवीर भक्त हितकारी। सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥      निशिदिन ध्यान धरै जो कोई। ता सम भक्त और नहिं होई ।। ध्यान धरे शिवजी मन माहीं। ब्रह्म इन्द्र पार नहिं पाहीं॥      दूत तुम्हार वीर हनुमाना। जासु प्रभाव तिहूं पुर जाना॥ तब भुज दण्ड प्रचण्ड कृपाला। रावण मारि सुरन प्रतिपाला॥      तुम अनाथ के नाथ गुंसाई। दीनन के हो सदा सहाई॥ ब्रह्मादिक तव पार न पावैं। सदा ईश तुम्हरो यश गावैं॥      चारिउ वेद भरत हैं साखी। तुम भक्तन की लज्जा राखीं॥   गुण गावत शारद मन माहीं। सुरपति ताको पार न पाहीं॥      नाम तुम्हार लेत जो कोई। ता सम धन्य और नहिं होई॥ राम नाम है अपरम्पारा। चारिहु वेदन जाहि पुकारा॥      गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो। तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो॥ शेष रटत नित नाम तुम्हारा। महि को भार शीश पर धारा॥      फूल समान रहत सो भारा। पाव न कोऊ तुम्हरो पारा॥ भरत नाम तुम्हरो उर धारो। तासों कबहुं न रण में हारो॥      नाम शक्षुहन हृदय प्रकाशा। सुमिरत होत शत्रु कर नाशा॥   लखन तुम्हारे आज्ञाकारी। सदा करत सन्तन रखवारी॥      ताते रण जीते नहिं कोई। युद्घ जुरे यमहूं किन ह

नमामि भक्त वत्सलं ।Namami Bhakt Vatsalam ।Manas stuti ।

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नमामि भक्त वत्सलं (hindi/English) नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥           भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥ निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥           प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥ प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥           निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥ दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥           मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृन्द भंजनं ॥ मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥           विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥ नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥           भजे सशक्ति सानुजं । शची पति प्रियानुजं ॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सराः ॥           पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥ विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥           निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ तमेकमद्भुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥           जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥ भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥           स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥ अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥     

विनय पत्रिका-105।अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।Vinay patrika-105।Ablaun Nasani,Ab N Nasaihaun।

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अबलौं नसानी,अब न नसैहौं ।        राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥      भावार्थ :-  अबतक तो (यह आयु व्यर्थ ही) नष्ट हो गयी, परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दूंगा। श्रीरामकी कृपासे संसाररूपी रात्रि बीत गयी है, (मैं संसारकी माया-रात्रिसे जग गया हूँ) अब जागनेपर फिर (मायाका) बिछौना नहीं बिछाऊँगा (अब फिर मायाके फंदेमें नहीं फँसूंगा) ॥  पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं ।       स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥      भावार्थ :-  मुझे रामनामरूपी सुन्दर चिन्तामणि मिल गयी है। उसे हृदयरूपी हाथसे कभी नहीं गिरने दूंगा। अथवा हृदयसे रामनामका स्मरण करता रहूँगा और हाथसे रामनामकी माला जपा करूँगा। श्रीरघुनाथजीका जो पवित्र श्यामसुन्दर रूप है उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरूपी सोनेको कसूंगा। अर्थात् यह देखूूँगा कि श्रीरामके ध्यानमें मेरा मन सदा-सर्वदा लगता है कि नहीं॥  परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं ।        मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ॥        भावार्थ :-  जबतक मैं इन्द्रियोंके वशमें था, तबतक उन्होंने (मुझे मनमाना नाच नचाकर) मेरी ब

विनय पत्रिका-90।ऐसी मूढ़ता या मनकी।Vinay patrika-90।Aisi Mudhta Ya Manki।

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ऐसी मूढ़ता या मनकी। परिहरि राम-भगति-सुरसरिता, आस करत ओसकनकी  ॥ भावार्थ :-  इस मनकी मन की ऐसी मूर्खता है कि यह श्रीराम-भक्तिरूपी गंगाजीको छोड़कर ओसकी बूंदोंसे तृप्त होने की आशा करता है। धूम-समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी । नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥  भावार्थ :-  जैसे प्यासा पपिहा धुएँका गोट देखकर उसे मेघ समझ लेता है, परंतु वहां (जानेपर) न तो उसे शीतलता मिलती है और न जल मिलता है, धुएँसे आंखें और फुट जाती हैं। (यही दशा इस मन की है)। ज्यों गच-काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी ।  टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ भावार्थ :-  जैसे मूर्ख बाज कांचकी फर्शमें अपने ही शरीरकी परछाई देखकर उसपर चोंच मारनेसे वह टूट जाएगी इस बातको भूखके मारे भूलकर जल्दीसे उसपर टूट पड़ता है (वैसे ही यह मेरा मन भी विषयोंपर टूट पड़ता है)। कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी । तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ भावार्थ :-  हे कृपाके भंडार! इस कुचालका मैं कहांतक वर्णन करूं? आप तो दासोंकी दशा जानते ही हैं । हे स्वामीन्! तुलसीदास का

विनय पत्रिका-107।है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।Hai Niko Mero Devta Kosalpati।Vinay patrika-107।

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 है नीको मेरो देवता कोसलपति राम ।   सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ भावार्थ :-  कोसलपति श्रीरामचन्द्रजी मेरे सर्वश्रेष्ठ देवता हैं, उनके कमलके समान सुन्दर नेत्र हैं और उनका शरीर परम सुन्दर श्यामवर्ण है ॥  सिय - समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग ।   भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ भावार्थ :-  श्रीसीताजीके साथ सदा शोभायमान रहते हैं, असंख्य कामदेवोंके समान उनका सौन्दर्य है। विशाल भुजाओंमें धनुष-बाण और कमरमें सुन्दर तरकस धारण किये हुए हैं ॥  बलिपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति ।   सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ भावार्थ :-  वे बलि या पूजा कुछ भी नहीं चाहते, केवल एक 'प्रेम' चाहते हैं। स्मरण करते ही प्रसन्न हो जाते हैं और सब तरहसे पवित्र कर देते हैं ॥  देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन-बंधु ।   गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ भावार्थ :-  सब सुख दे देते हैं और दुःखोंको भस्म कर डालते हैं। वे दुःखी जनोंके बन्धु हैं, गुणोंको ग्रहण करते और अवगुणोंको हर लेते हैं, ऐसे करुणा-सागर हैं ॥  देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान ।  सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जा

विनय पत्रिका-104।जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।।Vinay patrika-104।Janki Jivanki Bali Jaihaun।

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  जानकी-जीवनकी बलि जैहौं ।      चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं  ॥       भावार्थ :-  मैं तो श्रीजानकी-जीवन रघुनाथजीपर अपनेको न्योछावर कर दूंगा। मेरा मन यही कहता है कि अब मैं श्रीसीता-रामजीके चरणोंको  छोड़कर दूसरी जगह कहीं भी नहीं जाऊँगा ॥ उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं ।        मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥       भावार्थ :-  मेरे हृदयमें ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि अपने स्वामी श्रीरामजीके चरणोंसे विमुख होकर मैं स्वप्नमें भी कहीं सुख नहीं पा सकूँगा। इससे मैं मनको तथा इस शरीरमें रहनेवाले (इन्द्रियादि) सभीको यही उपदेश दूंगा ॥ श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं ।     रो किहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं॥      भावार्थ :-  कानोंसे दूसरी बात नहीं सुनूँगा, जीभसे दूसरेकी चर्चा नहीं करूँगा, नेत्रोंको दूसरी और ताकनेसे रोक लूंगा और यह मस्तक केवल भगवान्को ही झुकाऊँगा ॥ जातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं ।       य ह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥      भावार्थ :-  अब प्रभुके साथ नाता और प्रेम करके दूसरे सबसे न

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला।Bhaye Pragat Kripala Din Dayal ।मानस स्तुति ।Manas Stuti।

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भए प्रगट कृपाला दीनदयाला, कौसल्या हितकारी।      हरषित महतारी, मुनि मन हारी, अद्भुत रूप बिचारी।। लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा, निज आयुध भुजचारी ।      भूषन बनमाला, नयन बिसाला, सोभासिंधु खरारी ॥ कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी, केहि बिधि करूं अनंता ।      माया गुन ग्यानातीत अमाना, वेद पुरान भनंता ॥ करुना सुख सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिं श्रुति संता ।      सो मम हित लागी, जन अनुरागी, भयउ प्रगट श्रीकंता ॥ ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया, रोम रोम प्रति बेद कहै ।      मम उर सो बासी, यह उपहासी, सुनत धीर मति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना, चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।      कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई, जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ माता पुनि बोली, सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा ।      कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला, यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना, होइ बालक सुरभूपा ।      यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं, ते न परहिं भवकूपा ॥ मानस स्तुति- भये प्रगट कृपाला दिनदयाला  youtube वीडियो भजन Bhaye Pragat Kriapala Dindyala  youtube video bhajan https://youtu.be/egQV8sZWkeI छंद :- मनु जाहिं राच

नरक में कौन और क्यों जाता है। नरक कितने प्रकार के होते हैं| Narak kitne prakar ke hote h |

चौरासी लाख योनियों में मानव योनि की श्रेष्ठता इस बात में निहित है कि यह बुद्धिमान और विवेकी है। जीवन से जुड़ी समस्याओं का यह बुद्धि के द्वारा समाधान कर सकता है और अपने जीवन को शक्तिमय बना सकता है। ऐसे व्यक्ति समाज के लिए भी आदर्श होते हैं।   मानव जीवन समस्याओं के समाधान के लिए ही होता है।  अपने को धनवान समझकर दूसरे को अपमानित नहीं करना चाहिए। ईश्वर अगर धन प्रदान किये है तो उसका स्वयं एवं समाज के हित में उपयोग करें न कि धन का प्रदर्शन और दुरुपयोग करें। धनवान और बुद्धिमान को अपने बारे में बताने की जरुरत नहीं पड़ती, एक समय के बाद समाज उनकी पहचान कर आदर देने लगता है। घन रहने के बावजूद भी जो न खाता है न खिलाता है उसे धनपिशाच कहा जाता है।  धन सम्पत्ति व्यक्ति की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ समाज के जरुसमन्द लोगों के लिए भी है।आज इस तथ्य को समझकर कार्यान्वयन करने में ही व्यक्ति और समाज का कल्याण है। धन के प्रति व्यक्ति के एकाधिकार के कारण ही सामाजिक अतर्कलह पैदा हो रहे है।    जो अपने जीव न को मर्यादित रखकर सांसारिकता से ऊपर उठने का प्रयास करता है, उसके अभियान में समाज भी सहयो

विनय पत्रिका-98 | ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। Vinay patrika-98, पद98

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ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। निज प्रभुता बिसारि जनके बस,  होत सदा यह रीति।। भावार्थ :-  श्रीहरि अपने दास पर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूलकर उस भक्तके ही अधीन हो जाते हैं। उनकी यह रीति सनातन है।। जिन बांधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी। सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठी बांध्यो सकत न छोरी।। भावार्थ :- जिस परमात्माने देवता, दैत्य, नाग और मनुष्योंको कर्मोंकी बड़ी मजबूत डोरीमें बांध रखा है, उसी अखंड पर ब्रह्माको यशोदाजीने प्रेमवस जबरदस्ती (ऊखलसे) ऐसा बांध दिया कि जिसे आप खोल भी  नहीं सके।। जाकी मायाबस बिरंची सिव, नाचत पार न पायो। करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिंह सोइ नाच नचायो।। भावार्थ :- जिसकी मायाके वश होकर ब्रह्मा और शिवजी ने नाचते-नाचते उसका पार नहीं पाया उसीको गुप्म गोप-रमणीयों ने ताल बजा-बजाकर (आंगनमें ) नचाया।। बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, वेद-बिदित यह लिख। बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज मांगी भीख।। भावार्थ :- वेदका यह सिद्धांत प्रसिद्ध है कि भगवान सारे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और तीनों लोकोंके अधिश्वर हैं, ऐसे प्रभुकी भी

विनय पत्रिका-85। मन ! माधवको नेकु निहारहि। Vinay patrika,पद 85

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मन! माधवको नेकु निहारहि। सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों,  छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।। भावार्थ :- हे मन ! माधवकी ओर तनिक तो  देख! अरे दुष्ट! सुन, जैसे कंगाल क्षण-क्षणमें अपना धन संभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजी का समरण किया कर।। सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदरहि। रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि।। भावार्थ :- वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सद्गुणोंके स्थान हैं। वे सुंदर और बड़े दानी हैं। संतोको  प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं।। जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-परही। तौ जनि तुलसीदास निसि -बासर हरि-पद-कमल बिसरहि।। भावार्थ :- यदि तू बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और संयमके संसार-सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास! रात-दिनमें श्रीहरिके चरण-कमलोंको कभी मत भूल।। https://amritrahasya.blogspot.com/2021/01/vinay-patrika-73.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/95-vinay-patrika.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/96.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/98-vinay-patrika-98.html

विनय पत्रिका-211।कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। पद संख्या- 211 Vinay Patrika।

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कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे, तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उध्दरहुगे || भावार्थ :- हे रघुवंशमणि!  कभी आप  मुझपर भी वही कृपा करेंगे, जिसके प्रतापसे व्याध (वाल्मीकि) गजेंद्र, ब्राह्मण अजामिल और अनेक दुष्ट संसारसागरसे तर गए? हे नाथ! क्या आप मुझे भी उन्हीं पापियोंके समान समझकर मेरा भी उद्धार करेंगे ?।। जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि, अधम आचरण कछु हृदय नहि धरहुगे | दिनहित ! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे।। भावार्थ :- अनेक योनियों में जन्म ले-लेकर मैंने नाना प्रकारके दुष्ट कर्म किए हैं। आप मेरे नीचे आचरणोंकी बात तो हृदयमें लाएंगे? हे दिनोंका हित करनेवाले! क्या आप किसीसे भी ना जीते जाने, सबके मनकी बात जानने, सब कुछ करने में समर्थ होने और शरणागतों की रक्षा करने आदि अपने गुणोंका कोमल स्वभावसे अनुसरण करेंगे? (अर्थात अपने इन गुणोंकी ओर देखकर, मेरे पापोंसे घृणा कर, मेरे मनकी बात जानकर अपनी सर्वशक्तिमत्तासे मुझ शरणमें पड़े हुए का उधार करेंगे?)।। मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली       सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे। जोग-जप

विनय-पत्रिका-119| हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।He Hari!Kavan Jatan Bhram Bhage| पद संख्या-119 | Vinay Patrika-119

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हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै। देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाव नहिं त्यागै।। भावार्थ :- हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, नित्य पवित्र और सुखरूप माननेका) भ्रम किस उपायसे दूर होगा ? देखता है, सुनता है, सोचता है, फिर भी मेरा यह मन अपने स्वभाव को छोड़ता। (और संसार को सत्य सुखरूप मानकर बार-बार विषयों में फँसता है) ।। भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई। कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई।। भावार्थ :-  भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी साधन इस मनको शान्त करने के उपाय हैं, परन्तु मेरे हृदय से तो यही वासना कभी नहीं जाती कि 'कोई मुझे अच्छा कहे' अथवा 'मुझे कुछ दे।' (ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के साधकों के मनमें भी प्रायः बड़ाई और धन-मान पानेकी वासना बनी ही रहती है)।।  जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै। निज करनी बीपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै।। भावार्थ :-  जिस (संसाररूपी) रातमें सब जीव सोते हैं उसमें केवल आपका कृपापात्र जन जागता है। किन्तु मुझे तो अपनी करनी को बिलकुल ही विपरीत देखकर बड़ा भारी भय लग रहा है।। जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत

विनय पत्रिका-92। माधवजू, मोसम मंद न कोऊ। पद संख्या- 92 । Vinay Patrika

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माधव जू, मोसम मन्द न कोऊ। जद्यपि मीन-पतंग हिनमती, मोहि नहिं पूजैं ओऊ।। भावार्थ :-  हे माधव! मेरे समान मूर्ख कोई भी नहीं है।यद्यपि मछली और पतंग हीन बुद्धि हैं, परन्तु वो भी मेरी बराबरी नहीं कर सकते।। रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो। देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयानयो।। भावार्थ :-  पतंग ने सुंदर रूपके वश हो दीपकको अग्नि नहीं समझा और मछली ने आहारके वश हो लोहेके काँटा नहीं जाना , परंतु मैं तो विषयों को प्रत्यक्ष विपत्तिरूप देखकर भी नहीं छोडता हूँ (अतएव मैं उनसे अधिक मूर्ख हूँ )  महामोह-सरिता अपार महँ, सन्तत फिरत बह्यो। श्रीहरि-चरण -कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यौ।। भावार्थ :- महमोह रूपी अपार नदी में निरंतर बहता फिरता हूँ | (इससे पार होनेके लिए ) श्री हरि के चरण-कमल रूपी नौकाको तजकर बार-बार फेनोंको (अर्थात क्षडभंगुर भोगों को ) पकड़ता हूँ  || अस्थि पुर तन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै  | निज तालुगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ||      भावार्थ :- जैसे बहुत भूखा कुत्ता पुरानी सुखी हड्डी को मुंहमें भरकर पकड़ता है और अपने तालुमें रगड़ लगनेसे जो खून निकलता है,

विनय पत्रिका-101 | जाऊँ कहाँ तजी चरण तुम्हारे | Vinay patrika-101| पद संख्या १०१

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     जाऊँ  कहाँ  तजि चरण तुम्हारे | काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दिन पियारे ||          भावार्थ :- हे नाथ-आपके चरणों को छोडकर और कहाँ जाऊँ?  संसारमें 'पतित पावन' नाम और किसका है ? (आपकी भाँति ) दिन -दुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं ?|| कौने देव बराइ बिरद -हित, हठी हठी अधम उधारे | खग, मृग , ब्याध, पषन, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ||            भावार्थ :- आजकल किस देवताने अपने बानेको रखने के लिए हठपूर्वक चुन-चुनकर निचों का उद्धार किया है ? किस देवताने पक्षी (जटायु)पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर(अहल्या), जड वृक्ष(यमलार्जुन) और यवनों का उद्धार किया है ?। देव,दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब , माया-बिबस बिचारे | तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ||            भावार्थ :- देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मानुष आदि सभी बेचारे मायके वश हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बन्धनको कैसे खोल सकता है) इसलिए हे प्रभु! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथों में सौंपकर क्या करे? ।। श्री सिता राम! 🙏 कृपया लेख पसंद आये तो अपना विचार कॉमेंट बॉक्स में जरूर साझा करें ।    इसे शेयर करें, जि

विनय पत्रिका 270 कबहुँ कृपा करि रघुबीर ! Pad No-270 Vinay patrika| पद संख्या -270

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कबहुँ कृपा करि रघुबीरसिदास ! मोहू चितैहो |     भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि ! अवगुन अमित बितैहो  ||      भावार्थ :- हे ! रघुबीर ! कभी कृपा कर मेरी ओर भी देखेंगे ? हे दयानिधान ! 'भला-बुरा जो कुछ भी हूँ , आपका दास हूँ ', अपने मनमें इस बात को समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अंत कर देंगे ? (अपनी दया से मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगें ?)|| जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो | हौं सनाथ ह्वैहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ||       भावार्थ :-  (अबसे पूर्व)  प्रत्येक जन्म में यह मन मुझे जीतता चला आया है (मैं इससे हारकर विषयोंमें फँसता रहा हूँ ), इस बार क्या आप मुझे इससे जीता देंगे ?) (क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणों में लग जाएगा ?) (तब) मैं तो सनाथ  हो ही जाऊंगा किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रता से नहीं डरेंगे,तो 'अनाथ-पति' पुकारे जाने लगेंगे (मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ- नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा )|| बिनय करों अपभयहु तेन, तुम्ह परम हिते हो |  तुलसि दास कासों कहै, तुमही सब मेरे , प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो ||      भावार