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विनय पत्रिका-110।कहु केहि कहिय कृपानिधे।Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiy Kripanidhe

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 कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति ।        इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥१ ॥ भावार्थ :-  हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥१ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।        हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥२ ॥      भावार्थ :-  ये तो सदा सुख - सम्पत्ति और स्वर्ग - नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं ; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥२ ॥   मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।       जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥३ ॥      भावार्थ :-  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दु:खी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दु:ख नहीं होगा? ॥३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।        तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥४ ॥        भावार्थ :-   अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ ; परन्तु हे मुरारे ! आप तो ( अपराध क