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विनय पत्रिका-124-जौ निज मन परिहरै बिकारा-Vinay patrika-124-Jau Nij Man Pariharai Bikara

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जौ निज मन परिहरै बिकारा ।      तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा ॥ १ ॥        भावार्थ :- यदि हमारा मन विकारोंको छोड़ दे, तो फिर द्वैतभावसे उत्पन्न संसारी दुःख, भ्रम और अपार शोक क्यों हो? (यह सब मनके विकारोंके कारण ही तो होते हैं) ॥ १ ॥  सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआई।        त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं ॥ २ ॥        भावार्थ :-  शत्रु, मित्र और उदासीन इन तीनोंकी मनने ही हठसे कल्पना कर रखी है। शत्रुको साँपके समान त्याग देना चाहिये, मित्रको सुवर्णकी तरह ग्रहण करना चाहिये और उदासीनकी तृणकी तरह उपेक्षा कर देनी चाहिये। ये सब मनकी ही कल्पनाएँ हैं ॥ २ ॥   असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे।        सरग, नरक, चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥      भावार्थ :-  जैसे (बहुमूल्य) मणिमें भोजन, वस्त्र, पशु और अनेक प्रकारकी चीजें रहती हैं वैसे ही स्वर्ग, नरक, चर, अचर और बहुत से लोक इस मनमें रहते हैं। भाव यह कि छोटी-सी मणिके मोलसे जो चाहे सो खाने, पीने, पहननेकी चीजें खरीदी जा सकती हैं, वैसे ही इस मनके प्रतापसे जीव स्वर