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भक्त नामावली- Bhakt Namavali-mukhy mahant Kam Rati Ganpati

 भक्त नामावली           हमसों इन साधुन सों पंगति। जिनको नाम  लेत दुःख छूटत, सुख लूटत तिन संगति।। मुख्य महंत काम रति गणपति, अज महेस नारायण। सुर नर असुर मुनि पक्षी पशु, जे हरि भक्ति परायण।। वाल्मीकि नारद अगस्त्य शुक, व्यास सूत कुल हीना। शबरी स्वपच वशिष्ठ विदुर, विदुरानी प्रेम प्रवीणा।। गोपी गोप द्रोपदी कुंती, आदि पांडवा ऊधो। विष्णु स्वामी निम्बार्क माधो, रामानुज मग सूधो।। लालाचारज धनुरदास, कूरेश भाव रस भीजे। ज्ञानदेव गुरु शिष्य त्रिलोचन, पटतर को कहि दीजे।। पदमावती चरण को चारन, कवि जयदेव जसीलौ। चिंतामणि चिदरूप लखायो, बिल्वमंगलहिं रसिलौ।। केशवभट्ट श्रीभट्ट नारायण, भट्ट गदाधर भट्टा। विट्ठलनाथ वल्लभाचारज, ब्रज के गूजरजट्टा।। नित्यानन्द अद्वैत महाप्रभु, शची सुवन चैतन्या। भट्ट गोपाल रघुनाथ जीव, अरु मधु गुसांई धन्या।। रूप सनातन भज वृन्दावन, तजि दारा सुत सम्पत्ति। व्यासदास हरिवंश गोसाईं, दिन दुलराई दम्पति।। श्रीस्वामी हरिदास हमारे, विपुल विहारिणी दासी। नागरि नवल माधुरी वल्लभ, नित्य विहार उपासी।। तानसेन अकबर करमैति, मीरा करमा बाई। रत्नावती मीर माधो, रसखान रीति रस गाई।। अग्रद

सत्यनारायण भगवान कथा । SatyaNarayan Vrat Katha।

     सत्य को नारायण (विष्णु के रूप में पूजना ही सत्यनारायण की पूजा है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य हैं, बाकी सब माया है।      भगवान विष्णु के कई रूपों की पुजा की जाती है, उनमें से एक सत्यनारायण भगवान के स्वरूप इस कथा में बताया गया है।  व्रत कथा के अलग-अलग अध्यायों में छोटी कहानियों के माध्यम से बताया गया है कि सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती है। इसलिए जीवन में सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए। ऐसा न करने पर भगवान न केवल नाराज होते हैं अपितु दंड स्वरूप संपति और बंधु बांधवों के सुख से वंचित भी कर देते हैं। इस अर्थ में यह कथा लोक में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। प्रायः पूर्णमासी को इस कथा का परिवार में वाचन किया जाता है। अन्य पर्वों पर भी इस कथा को विधि विधान से करने का निर्देश दिया गया है। इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत , पंचगव्य , सुपारी , पान , तिल , मोली , रोली , कुमकुम , दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा

श्री रामचरितमानस अयोध्या काण्ड गतांक दोहा 45से सोरठा क्रमांक 50 तकSri Ramcharitmanas-Ayodhya Kand Doha 45 To 50

श्री रामचरितमानस अयोध्या काण्ड गतांक दोहा 45 से सोरठा क्रमांक 50 तक जाने समझे और अपने जीवन मे उतारे। दोहा : मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।           आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥           भावार्थ :- हे पिताजी! इस मंगल के समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिए और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिए। यह कहते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी सर्वांग पुलकित हो गए॥45॥ चौपाई : धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥           चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥           भावार्थ :-   (उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठी में) रहते हैं॥1॥ आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥           बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥2॥           भावार्थ :-   आपकी आज्ञा पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊँगा, अतः कृपया आज्ञा दीजिए। माता से विदा माँग आता हूँ। फिर आपके पैर

विनय पत्रिका-109।कस न करहु करुना हरे ! दुखहरन मुरारि !Kas N Karhu Karuna Hare!dukhaharan Murari।Vinay patrika-109।

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  कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!   त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ भावार्थ :-   हे हरे! हे मुरारे! आप दु:खोंके हरण करनेवाले हैं, फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते? आप दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकारके तापोंके और सन्देह, शोक, अज्ञान तथा भयके नाश करनेवाले हैं। (मेरे भी दु:ख, ताप और अज्ञान आदिका नाश कीजिये) ॥  इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन ।  तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ भावार्थ :-  एक तो कलिकालसे उत्पन्न होनेवाले पापोंसे मेरी बुद्धि मन्द पड़ गयी है और मन मलिन हो गया है, तिसपर फिर हे स्वामी! आप भी मेरी सँभाल नहीं करते? तब इस दासका जीवन कैसे निभेगा? ॥  सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन ।   यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन ॥ भावार्थ :-    हे प्रभो! आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं और मैं सब प्रकारसे दीन हूँ। यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नहीं करते , इससे मालूम होता है कि मैं भाग्यहीन ही हूँ॥  भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे ।   दुख - सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ भावार्थ :-   हे रघुनाथजी! मैं अनेक योनियोंमें भटक आया हूँ ;

विनय पत्रिका-111।केसव! कहि न जाइ का कहिये।Vinay patrika-111-Keshav! Kahi N Jai Ka Kahiye-

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केसव ! कहि न जाइ का कहिये ।   देखत तव रचना बिचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ भावार्थ :- हे केशव! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता । हे हरे! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन ही मन (आपकी लीला) समझकर रह जाता हूँ॥  सून्य भीति पर चित्र , रंग नहि , तनु बिनु लिखा चितेरे ।   धोये मिटइ न मरइ भीति , दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ भावार्थ :-   कैसी अद्भुत लीला है कि इस (संसाररूपी) चित्रको निराकार (अव्यक्त) चित्रकार (सृष्टिकर्ता परमात्मा) ने शून्य (मायाकी) दीवारपर बिना ही रंगके (संकल्पसे ही) बना दिया। (साधारण स्थूल-चित्र तो धोनेसे मिट जाते हैं, परन्तु) यह (महामायावी-रचित माया-चित्र) किसी प्रकार धोनेसे नहीं मिटता। ( साधारण चित्र जड है, उसे मृत्युका डर नहीं लगता परन्तु) इसको मरणका भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है परन्तु) इस संसाररूपी भयानक चित्रकी ओर देखनेसे दुःख होता है॥ रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं ।   बदन - हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ भावार्थ :-  सूर्यकी किरणोंमें (भ्रमसे) जो जल दिखायी देता है उस जलमें एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुँह नहीं

विनय पत्रिका-113।माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।Vinay patrika-113-Madhav! Ab N Drvhu Kehi Lekhe

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माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।   प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ भावार्थ :-   हे माधव! अब तुम किस कारण कृपा नहीं करते? तुम्हारा प्रण तो शरणागतका पालन करना है और मेरा प्रण तुम्हारे चरणारविन्दोंको देख-देखकर ही जीना है। भाव यह कि जब मैं तुम्हारे चरण देखे बिना जीवन धारण ही नहीं कर सकता तब तुम प्रणतपाल होकर भी मुझपर कृपा क्यों नहीं करते ॥ जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तें स्वामी ।   तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ भावार्थ :-   जबतक मैं दीन और तुम दयालु, मैं सेवक और तुम स्वामी नहीं बने थे, तबतक तो मैंने जो दुःख सहे सो मैंने तुमसे नहीं कहे, यद्यपि तुम अन्तर्यामीरूपसे सब जानते थे ॥  तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै ।   बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥    भावार्थ :-  किन्तु अब तो मेरा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया है। तुम दानी हो और मैं कंगाल हूँ, तुम पतितपावन हो और मैं पतित हूँ, वेद इस बातको गा रहे हैं। हे रघुनाथजी! इस प्रकार मेरे-तुम्हारे अनेक सम्बन्ध हैं; फिर भला, तुम मुझे कैसे त्याग सकते हो?॥  जनक-जननि

विनय पत्रिका-110।कहु केहि कहिय कृपानिधे।Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiy Kripanidhe

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 कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति ।        इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥१ ॥ भावार्थ :-  हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥१ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।        हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥२ ॥      भावार्थ :-  ये तो सदा सुख - सम्पत्ति और स्वर्ग - नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं ; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥२ ॥   मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।       जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥३ ॥      भावार्थ :-  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दु:खी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दु:ख नहीं होगा? ॥३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।        तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥४ ॥        भावार्थ :-   अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ ; परन्तु हे मुरारे ! आप तो ( अपराध क

विनय पत्रिका-108।बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।Bir Maha Avaradhiye,Sadhe Sidhi Hoy।Vinay patrika-108।

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  बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय ।   सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ॥ भावार्थ :-   महान् वीर श्रीरघुनाथजीकी आराधना करनी चाहिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है। वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब जानते हैं ॥  बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस ।   बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥ भावार्थ :-  इस कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है। (सद्गुरुसे) उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र ( राम ) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं ॥    प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।   संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥ भावार्थ :-  (मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है) प्रेमरूपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरूपी समिधका क्षमारूपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये   अघ - उचाटि,  मन बस करै, मारै मद मार ।   आकरषै सुख - संपदा - संतोष - बिचार ॥ भावार्थ :-  पापोंका उच्चाटन , मनका वशीकरण , अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरूपी सुख - सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये ।  जि

हनुमान् (आंजनेय) अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्-Hanuman Ashtottr Shatnam Stotram

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हनुमान् (आंजनेय) अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् आंजनेयो महावीरो हनुमान्मारुतात्मजः । तत्व ज्ञान प्रदः सीतादेवीमुद्राप्रदायकः ॥ 1 ॥ अशोक वनिकाच्छेत्ता सर्वमाया विभंजनः । सर्वबंध विमोक्ता च रक्षो विध्वंस कारकः ॥ 2 ॥ परविद्या परीहारः परशौर्य विनाशनः । परमंत्र निराकर्ता परयंत्र प्रभेदकः ॥ 3 ॥ सर्वग्रह विनाशी च भीमसेन सहायकृत् । सर्वदुःखहरः सर्वलोकचारी मनोजवः ॥ 4 ॥ पारिजात द्रुमूलस्थः सर्वमंत्र स्वरूपवान् । सर्वतंत्र स्वरूपी च सर्वयंत्रात्मकस्तथा ॥ 5 ॥ कपीश्वरो महाकायः सर्वरोगहरः प्रभुः । बलसिद्धिकरः सर्वविद्या संपत्प्रदायकः ॥ 6 ॥ कपिसेना नायकश्च भविष्यच्चतुराननः । कुमार ब्रह्मचारी च रत्नकुंडल दीप्तिमान् ॥ 7 ॥ संचल द्वालसन्नद्धलंब मान शिखोज्ज्वलः । गंधर्व विद्यातत्त्वज्ञो महाबल पराक्रमः ॥ 8 ॥ कारा गृह विमोक्ता च शृंखला बंधमोचकः । सागरोत्तारकः प्राज्ञो रामदूतः प्रतापवान् ॥ 9 ॥ वानरः केसरिसुतः सीता शोकनिवारकः । अंजनागर्भ संभूतो बालार्क सदृशाननः ॥ 10 ॥ विभीषण प्रिय करो दशग्रीव कुलांतकः । लक्ष्मण प्राणदाता च वज्रकायो महाद्युतिः ॥ 11 ॥ चिरंजीवी रामभक्तो दैत्य कार्य विघातकः । अ

श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड-Ramayan Bal kand-sita Svambar katha

श्री रामचरितमानस बालकांड में भगवान श्री रामजी ने  ताड़का का वद्ध कर विश्वामित्र मुनि की यज्ञ की रक्षा की उसके बाद विश्वामित्र मुनि ने श्रीराम एवं  लक्ष्मण दोनों भाइयों को लेकर    श्री  सीताजी का स्वयंवर देखने मिथिला पहुंचे आगे की कथा - चौपाई : सीय स्वयंबरू देखिअ जाई । ईसु काहि धौं देइ बड़ाई ॥           लखन कहा जस भाजनु सोई । नाथ कृपा तव जापर होई ॥         भावार्थ:-  चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा) ॥ हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी ॥           पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला ॥           भावार्थ:- इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुष यज्ञशाला देखने चले ॥ रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई ॥           चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी ॥           भावार्थ:- दोनों भाई रंगभूमि में

बालि और सुग्रीव किनके पुत्र हैं ?-Bali Aur Sugriv Kinke Putr hain-ऋष्यमूक पर्वत-Rishymuk Parvat ka Itihas

  1. ऋष्यमूक पर्वत का नाम कैसे पड़ा? 2. बालि और सुग्रीव का जन्म कैसे हुआ? 1. ऋष्यमूक पर्वत का नाम कैसे पड़ा............           ऋष्यमूक पर्वत श्रेणियों के अन्तर्गत एक पर्वत पर एक विशाल बानर रहता था, जिसका नाम ऋक्षराज था। किसी ने उससे पूछा कि इस पर्वत का नाम ऋष्यमूक क्यों पड़ा? तो उसने कहा कि रावण के द्वारा सताए हुए कई ऋषि एक साथ एक जगह मूक (मौन) होकर रावण का विरोध कर रहे थे।           रावण जब विश्व विजय के लिए वहाँ से निकला, तो उसने एक साथ लाखों ऋषियों को एक जगह एकत्र देख कर पूछा कि इतने सारे महात्मा लोग यहाँ क्या कर रहे हैं? तो राक्षसों ने जबाव दिया — महाराज ! यह आपके द्वारा सताए हुए ऋषि मूक होकर आपके विरोध स्वरूप यहाँ इकठ्ठे होकर आंदोलन कर रहे हैं । रावण ने कहा कि इनकी इतनी हिम्मत? मार डालो इन सभी को। रावण की आज्ञा से राक्षसों ने उन सभी ऋषियों को मार डाला। उन्हीं के अस्थि अवशेषों से यह पहाड़ बन गया, जिससे इसका नाम  ऋष्यमूक पर्वत  पड़ गया । 2. बालि और सुग्रीव का जन्म कैसे हुआ............           वह ऋक्षराज नाम का वानर बड़ा ही शक्तिशाली था। अपने बल के घमंड में इधर उधर विचरण करता रहता थ

भगवान शिव कैसे 5 मुखों वाले हो गए?Bhagvan Shiv Kaise 5 Mukhe ke Ho Gain?

         ऐसा माना जाता है कि एक बार भगवान विष्णु ने अत्यन्त मनोहर किशोर रूप धारण किया । उस मनोहर रूप को देखने के लिए चतुरानन ब्रह्मा, बहुमुख वाले अनन्त, सहस्त्राक्ष इन्द्र आदि देवता आए । उन्होंने एकमुख वालों की अपेक्षा भगवान के रूपमाधुर्य का अधिक आनन्द लिया । यह देखकर भगवान शिव सोचने लगे कि यदि मेरे भी अनेक मुख व नेत्र होते तो मैं भी भगवान के इस किशोर रूप का सबसे अधिक दर्शन करता । भगवान शिव के मन में इस इच्छा के उत्पन्न होते ही वे पंचमुख हो गए ।      भगवान शिव के पांच मुख— सद्योजात , वामदेव , तत्पुरुष , अघोर और ईशान हुए और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए । तभी से वे ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’ कहलाने लगे । भगवान शिव के पांच मुख चारों दिशाओं में और पांचवा मध्य में है ।  भगवान शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष है । तत्पुरुष का अर्थ है अपने आत्मा में स्थित रहना,   तत्पुरुष मुख का  रंग पीत वर्ण का है |  भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात है । यह बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार हैं । पश्चिम मुख सद्योजात श्वेत वर्ण का है  |   भगवान शिव के उत्तर दिशा का मुख वामदेव है

भगवान विष्णु कैसे बने तिरुपति बालाजी-Bhagvan Vishnu Kaise Bane Tirupati Balaji-

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भगवान विष्णु कैसे बने  तिरुपति बालाजी                          एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया । यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गयी । तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई । ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष्य तो देवगण ग्रहण करते थे । लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी ? यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरुरी था, जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करे ।             ब्रह्मा-विष्णु-महेश परम् अात्मा हैं । इनमें से श्रेष्ठ कौन है ? इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे ? भृगु ने इसका दायित्व सम्भाला । वह देवों की परीक्षा लेने चले । ऋषियों से विदा लेकर वह सर्व प्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुँचे ।             ब्रह्मा जी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया । इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया । भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं । पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता ? भृगु ने ब्रह्म देव से अशिष्टता कर दी । ब्रह्मा जी का क्रोध बढ़ गया