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विनय पत्रिका-98 | ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। Vinay patrika-98, पद98

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ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। निज प्रभुता बिसारि जनके बस,  होत सदा यह रीति।। भावार्थ :-  श्रीहरि अपने दास पर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूलकर उस भक्तके ही अधीन हो जाते हैं। उनकी यह रीति सनातन है।। जिन बांधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी। सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठी बांध्यो सकत न छोरी।। भावार्थ :- जिस परमात्माने देवता, दैत्य, नाग और मनुष्योंको कर्मोंकी बड़ी मजबूत डोरीमें बांध रखा है, उसी अखंड पर ब्रह्माको यशोदाजीने प्रेमवस जबरदस्ती (ऊखलसे) ऐसा बांध दिया कि जिसे आप खोल भी  नहीं सके।। जाकी मायाबस बिरंची सिव, नाचत पार न पायो। करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिंह सोइ नाच नचायो।। भावार्थ :- जिसकी मायाके वश होकर ब्रह्मा और शिवजी ने नाचते-नाचते उसका पार नहीं पाया उसीको गुप्म गोप-रमणीयों ने ताल बजा-बजाकर (आंगनमें ) नचाया।। बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, वेद-बिदित यह लिख। बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज मांगी भीख।। भावार्थ :- वेदका यह सिद्धांत प्रसिद्ध है कि भगवान सारे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और तीनों लोकोंके अधिश्वर हैं, ऐसे प्रभुकी भी