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मैं हरि, साधन करइ न जानी। He Hari, Sadhan Karai N Jani-विनय पत्रिका-122 Vinay patrika-122

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मैं हरि, साधन करइ न जानी।       जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥        भावार्थ :- हे हरे! मैंने (अज्ञानके नाशके लिये) साधन करना नहीं जाना। जैसा रोग था वैसी दवा नहीं की। इसमें इलाजका क्या दोष है ? ॥ १ ॥   सपने नृप कहँ घंटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे।        बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥        भावार्थ :- जैसे सपनेमें किसी राजाको ब्रह्महत्याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण व्याकुल हुआ जहाँ-तहाँ भटकता फिरे, परन्तु जबतक वह जागेगा नहीं तबतक सौ करोड़ अश्वमेधयज्ञ करनेपर भी वह शुद्ध नहीं होगा, वैसे ही तत्त्वज्ञानके बिना अज्ञानजनित पापोंसे छुटकारा नहीं मिलता॥२॥    स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।        बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥         भावार्थ :- जैसे अज्ञानके कारण मालामें महान् भयावने सर्पका भ्रम हो जाता है और वह (मिथ्या सर्पका भ्रम न मिटनेतक) अनेक हथियारों के द्वारा बलसे मारते-मारते थक जानेपर भी नहीं मरता, साँप होता तो हथियारोंसे मरता; इसी प्रकार यह अज्ञानसे भासनेवाला संसार भी ज्ञान हुए बिना

हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई-विनय पत्रिका-121-He Hari Yah Bhramki Adhika i- Vinay patrika-121

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हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई ।      देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥       भावार्थ :–  हे हरे! यह भ्रमकी ही अधिकता है कि देखने, सुनने, कहने और समझनेपर भी न तो संशय (असत्य जगत्को सत्य मानना) ही जाता है और न (एक परमात्माकी ही अखण्ड सत्ता है या कुछ और भी है ऐसा) सन्देह ही दूर होता है ॥ १ जो जग मृषा ताप-त्रय - अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।       कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे॥२॥             भावार्थ :– (कोई कहे कि) यदि संसार असत्य है, तो फिर तीनों तापोंका अनुभव किस कारणसे होता है ? (संसार असत्य है तो संसारके ताप भी असत्य हैं, परन्तु तापोंका अनुभव तो सत्य प्रतीत होता है।) (इसका उत्तर यह है कि) मृगतृष्णाका जल सत्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु जबतक भ्रम है, तबतक वह सत्य ही दीखता है दुःख होता है। इसी प्रकार जगत्में भी भ्रमवश दुःखोका अनुभव होता है ॥ २ ॥  सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागे ।       कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥         भावार्थ :– जैसे कोई सुन्दर सेजपर सोया हुआ मनुष्य सपनेमें समुद्रमें डूबनेसे भयभीत हो इसी भ्रमके कारण विशेष रह

विनय पत्रिका-120हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी He Hari! Kas N Harhu Bhram Bhari- Vinay patrika-120

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हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी ।            जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥            भावार्थ – हे हरे! मेरे इस (संसारको सत्य और सुखरूप आदि माननेके) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत् है, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य-सा ही भासता है ॥ १ ॥   अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।           बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीरकी नाईं ॥ २ ॥          भावार्थ – मैं यह जानता हूँ कि (शरीर-धन-पुत्रादि) विषय यथार्थमें नहीं है, किन्तु हे स्वामी! इतनेपर भी इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता। मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही हठ (मोह) से तोतेकी तरह परवश बँधा पड़ा हूँ (स्वयं अपने ही अज्ञानसे बँध-सा गया हूँ) ॥ २ ॥ सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।            बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥         भावार्थ – जैसे किसीको स्वप्न में अनेक प्रकारके रोग हो जायँ जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैद्य अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीड़ा नहीं मिटती (इसी प्रकार माया

विनय पत्रिका-117 हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै He Hari Kavan Dosh Tohin Vinay patrika-117

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हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।       जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥      भावार्थ - हे हरे! तुम्हें क्या दोष दूँ? (क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १॥  जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।       तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥      भावार्थ -  जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमें फँसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँमें गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भाँति इन्हींके पीछे भटकता हूँ ॥ २ ॥  भूत-द्रोह कृत मोह बस्य हित आपन मैं न बिचारो।       मद-मत्सर- अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥       भावार्थ -  अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता। मद, ईर्ष्या, अहंकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ! (बताइये मुझ सरीखा नीच और कौन होगा?) ॥ ३  बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।       बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥      भावार्थ -  वेदों और पुरा

विनय पत्रिका-116माधव! असि तुम्हारि यह माया Madhav! Asi Tumhari Yah Maya- Vinay patrika-116।

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माधव! असि तुम्हारि यह माया।      करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥        भावार्थ - हे माधव! तुम्हारी यह माया ऐसी (दुस्तर) है कि कितने ही उपाय करके पच मरो, पर जबतक तुम दया नहीं करते तबतक इससे पार पा जाना असम्भव ही है॥१॥ सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।      जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥२॥      भावार्थ -  सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ तथा दूसरोंको समझाता हूँ, पर तुम्हारी इस मायाका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आता और जबतक इसके वास्तविक रहस्यका अनुभव नहीं होता, तबतक मोहजनित संसारकी महान् विपत्तियाँ दु:ख देती ही रहेंगी ॥ २ ॥  ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।      तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि बासर धावै ॥ ३॥      भावार्थ -  ब्रह्मामृत बड़ा ही मधुर और शान्तिकर है, यदि मनको वह अमृतरस कहीं चखनेको मिल जाय, तो फिर यह विषयरूपी झूठे मृगजलके लिये क्यों रात-दिन भटकता फिरे ॥ ३ ॥ जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै।      सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥४॥      भावार्थ -  जिसके घरमें ही निर्मल चिन्तामणि वि