विनय पत्रिका-211।कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। पद संख्या- 211 Vinay Patrika।
कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे, तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उध्दरहुगे || भावार्थ :- हे रघुवंशमणि! कभी आप मुझपर भी वही कृपा करेंगे, जिसके प्रतापसे व्याध (वाल्मीकि) गजेंद्र, ब्राह्मण अजामिल और अनेक दुष्ट संसारसागरसे तर गए? हे नाथ! क्या आप मुझे भी उन्हीं पापियोंके समान समझकर मेरा भी उद्धार करेंगे ?।। जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि, अधम आचरण कछु हृदय नहि धरहुगे | दिनहित ! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे।। भावार्थ :- अनेक योनियों में जन्म ले-लेकर मैंने नाना प्रकारके दुष्ट कर्म किए हैं। आप मेरे नीचे आचरणोंकी बात तो हृदयमें लाएंगे? हे दिनोंका हित करनेवाले! क्या आप किसीसे भी ना जीते जाने, सबके मनकी बात जानने, सब कुछ करने में समर्थ होने और शरणागतों की रक्षा करने आदि अपने गुणोंका कोमल स्वभावसे अनुसरण करेंगे? (अर्थात अपने इन गुणोंकी ओर देखकर, मेरे पापोंसे घृणा कर, मेरे मनकी बात जानकर अपनी सर्वशक्तिमत्तासे मुझ शरणमें पड़े हुए का उधार करेंगे?)।। मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली सकुल निरमू...