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विनय पत्रिका-97। जौ पै हरि जनके औगुन गहते।Vinay patrika-97।Jau Pai Hari Janke Augun Gahte-97

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जौ पै हरि जनके औगुन गहते।      तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते।।      भावार्थ :-   (आप दासोंके दोषोंपर ध्यान नहीं देते) हे रामजी! यदि आप दासोंका दोष मनमें लाते तो इंद्र, दुर्योधन और बालिसे  हठ करके क्यों शत्रुता मोल लेते?।। जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते।      तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते।।      भावार्थ :-  यदि आप जप, यज्ञ, योग, व्रत आदि छोड़कर केवल प्रेम ही न चाहते तो देवता और श्रेष्ठ मुनियोंको त्यागकर ब्रजमें गोपोंके घर किसलिए निवास करते ?।। जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते।      तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबाहते।।    भावार्थ :-  यदि आप जहां-तहां भक्तों का प्रण रखकर भजनका प्रभाव न बखानतें तो, हम-सरीखे मूर्खोंका कलयुगके कठिन कर्म-मार्ग में किस प्रकार निर्वाह होता?।। जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते।      तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते।।      भावार्थ :-  हे संकटहारी! यदि आपने पुत्रके संकेत से नारायणका नाम लेनेवाले अजामिलके अनंत पापोंको भस्म ना किया होता, तो यमदूत हम सरीखे बैलोंको खोज-खोजकर हलमें ह

विनय पत्रिका-93। कृपा सो धौं कहाँ बिसारीं राम।Kripa So Dhaun Kaha Bisari Ram। Vinay Patrika-93।

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कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम। जेहि करुणा सुनी श्रवण दीन-दुख धावत हौ तजि धाम।।  भावार्थ :-  हे श्रीरामजी! आपने उस कृपा को कहां भुला दिया, जिसके कारण दिनोंके दु:खकी करुण-ध्वनि कानोंमें पढ़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ाकरते हैं । नागराज निज बल बिचारी हिय, हारि चरण चित दीन्हों। आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न किन्हों।। भावार्थ :- जब गजेंद्रने अपने बलकी ओर देखकर और हृदयमें हार मानकर आपके चरणोंमें चित लगाया, तब आप उसकी आर्त्त पुकार सुनते ही गरुणको छोड़कर तुरंत वहां पहुंचे, तनिक-सी भी देर नहीं की  । दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिज्ञा राखी।      अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी।।    भावार्थ :- हिरण्यकशिपुसे रात-दिन भयभीत रहनेवाले प्रहलादकी प्रतिज्ञा आपने रखी, महान् बलवान् सिंह और मनुष्यका-सा (नृसिंह) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है । भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्वो नर-नारी।      बसन पुरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी।।      भावार्थ :-  'नर' के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजभवनमें (अपनी लज्जा ज

नरक में कौन और क्यों जाता है। नरक कितने प्रकार के होते हैं| Narak kitne prakar ke hote h |

चौरासी लाख योनियों में मानव योनि की श्रेष्ठता इस बात में निहित है कि यह बुद्धिमान और विवेकी है। जीवन से जुड़ी समस्याओं का यह बुद्धि के द्वारा समाधान कर सकता है और अपने जीवन को शक्तिमय बना सकता है। ऐसे व्यक्ति समाज के लिए भी आदर्श होते हैं।   मानव जीवन समस्याओं के समाधान के लिए ही होता है।  अपने को धनवान समझकर दूसरे को अपमानित नहीं करना चाहिए। ईश्वर अगर धन प्रदान किये है तो उसका स्वयं एवं समाज के हित में उपयोग करें न कि धन का प्रदर्शन और दुरुपयोग करें। धनवान और बुद्धिमान को अपने बारे में बताने की जरुरत नहीं पड़ती, एक समय के बाद समाज उनकी पहचान कर आदर देने लगता है। घन रहने के बावजूद भी जो न खाता है न खिलाता है उसे धनपिशाच कहा जाता है।  धन सम्पत्ति व्यक्ति की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ समाज के जरुसमन्द लोगों के लिए भी है।आज इस तथ्य को समझकर कार्यान्वयन करने में ही व्यक्ति और समाज का कल्याण है। धन के प्रति व्यक्ति के एकाधिकार के कारण ही सामाजिक अतर्कलह पैदा हो रहे है।    जो अपने जीव न को मर्यादित रखकर सांसारिकता से ऊपर उठने का प्रयास करता है, उसके अभियान में समाज भी सहयो

विनय पत्रिका-96| जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके|Jau Pai Jiy Dharihau Avgun Jan Ke| Vinay patrika-96|

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जौ पै जिय धरिहौ अवगुन  जनके।      तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अद्य-बनके।।      भावार्थ :-  हे नाथ!  यदि आप इस दासके दोषोंपर ध्यान देंगे, तब तो पुन्यरूपी नखसे पापरूपी बड़े-बड़े वनोंके समूह मुझसे कैसे कटेंगे ? (मेरे जरा-से पुण्यसे भारी-भारी पाप कैसे दूर होंगे?) कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके।      हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके।।      भावार्थ :-  मन, वचन और शरीरसे किए हुए मेरे पापोंका वर्णन भी कौन कर सकता है? एक-एक छणके पापोंका हिसाब जोड़नेमें अनेक से शेष, सरस्वती और वेद हार जाएंगे।। जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके।      तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके।।      भावार्थ :-  (मेरे पुण्योंके भरोसे तो पापोंसे छूटकर उद्धार होना असंभव है) यदि आपके मनमें अपने नामकी महिमा और पतितोंको पावन करनेवाले अपने गुणोंका स्मरण आ जाए तो आप इस तुलसीदासको यमदूतोंके दांत तोड़कर संसार -सागरसे अवश्य वैसे ही तार देंगे, जैसे अजामिल ब्राह्मणको तार दिया था।। यह भी पढ़े श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित  विनय पत्रिका   पद-95 , तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं । लिंक

विनय पत्रिका-95 | तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं।Tau N Mere Agh-Avgun Ganihain| vinay Patrika-95|

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तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं। जौ जमराज काज सब परिहरि,  इहै ख्याल उर अनिहैं।। भावार्थः-  हे श्रीरामजी! यदि यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पापों और दोषोंके हिसाब -किताबका खयाल करने लगेंगे, तब भी उनको गेम गिन नहीं सकेंगे (क्योंकि मेरे पापों की कोई सीमा नहीं है) ।  चलिहैं छुटि पुंज पापिनके,  असमंजस जिय जनिहैं। देखि खलल अधिकार प्रभुसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं।। भावार्थः- (और जब वह मेरे हिसाबमें लग जाएंगे, तब उन्हें इधर उलझे हुए समझकर) पापियोंके दल- के- दल छूटकर भाग जाएंगे। इससे उनके मनमें बड़ी चिंता होगी। (मेरे कारणसे ) अपने अधिकारमें बाधा पहुंचते देखकर भगवानके दरबारमें अपने को निर्दोष साबित करनेके लिए) वह आपके सामने मेरी बहुत बढ़ाई कर देंगे (कहेंगे की तुलसीदास आपका भक्त है, इसने कोई पाप नहीं किया, आपके भजनके प्रतापसे इसने दूसरे पापियोंको भी पाप के बंधन से छुड़ा दीया)।। हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-शिरोमनि मनिहैं। ज्यों त्यों तुलसीदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं।। भावार्थः- तब आप हंसकर अपने भक्त यमराजका विश्वास कर लेंगे और मुझे भक्तों में शिरोमणि मान लेंगे ।बात यह है कि हे क

विनय पत्रिका-101 | जाऊँ कहाँ तजी चरण तुम्हारे | Vinay patrika-101| पद संख्या १०१

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     जाऊँ  कहाँ  तजि चरण तुम्हारे | काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दिन पियारे ||          भावार्थ :- हे नाथ-आपके चरणों को छोडकर और कहाँ जाऊँ?  संसारमें 'पतित पावन' नाम और किसका है ? (आपकी भाँति ) दिन -दुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं ?|| कौने देव बराइ बिरद -हित, हठी हठी अधम उधारे | खग, मृग , ब्याध, पषन, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ||            भावार्थ :- आजकल किस देवताने अपने बानेको रखने के लिए हठपूर्वक चुन-चुनकर निचों का उद्धार किया है ? किस देवताने पक्षी (जटायु)पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर(अहल्या), जड वृक्ष(यमलार्जुन) और यवनों का उद्धार किया है ?। देव,दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब , माया-बिबस बिचारे | तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ||            भावार्थ :- देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मानुष आदि सभी बेचारे मायके वश हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बन्धनको कैसे खोल सकता है) इसलिए हे प्रभु! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथों में सौंपकर क्या करे? ।। श्री सिता राम! 🙏 कृपया लेख पसंद आये तो अपना विचार कॉमेंट बॉक्स में जरूर साझा करें ।    इसे शेयर करें, जि

विनय पत्रिका 252| तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । Pad No-252 Vinay patrika| पद संख्या 252 ,

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      तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । मौसम कुटिल- मौलिमनि नहिं जग, तुमसम हरि! न हरन कुटिलाई ।।          भावार्थ - हे  महाराज रामचन्द्रजी! आपके समान तो कोई दिनोंका कल्याण करनेवाला बंधू नहीं है और मेरे समान कोई दिन नहीं है! मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं है || हौं मन- बचन- कर्म पटक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई। हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ- हित, चित यही सुरति कबहुँ नहिं जाई।।           भावार्थ - मैं मनसे, वचनसे और कर्म से पापोंमें रत हूँ और हे कृपालो! आप पापियोंको परमगति देनेवाले हैं | मैं अनाथ हूँ और हे प्रभु  आप अनाथों का हिट करनेवाले हैं | यह बात मेरे मन से कभी नहीं जाती || हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई। हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई।।           भावार्थ - मैं दुःखी हूँ, आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं| आपका यश यह वेद-पुराण गा रहे हैं| मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं| (आपके और मेरे इतने संबन्ध होनेपर भी) क्या कार

विनय पत्रिका-210 |औरु कहँ ठौर रघुबंस -मणि! मेरे। Auru Kaha Thaur Raghuvasns Mani ! Vinay patrika| पद संख्या 210

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औरु कहँ ठौर रघुबंस-मनि! मेरे।       पतित -पावन प्रनत-पाल असरन-सरन, बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि करे।।            भावार्थ :- हे रघुवंशमणि! मेरे लिये (आपके चरणोंको छोड़कर) और कहाँ ठौर है? पापियोंको पवित्र करनेवाले, शरणागतोंका पालन करनेवाले एवं अनाथोंको आश्रय देनेवाले एक आप ही हैं। आपका-सा बाँका बाना किस बानेवालेका है? (किसीका भी नहीं ) || समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,      करत नहिं कान बिनती बदन फेरे। तदपि ह्वै निडर हैं कहौं करुणा-सिंधु,       क्योंअब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे।।           भावार्थ :-  हे रघुनाथजी! मेरे अपराधोंको मनमें  समझकर अत्यन्त क्रोध यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे हुए हैं, तथापि मैं तो निर्भय होकर, हे करुणा के समुद्र ! यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर (मेरी दिन पुकार सुनक र ) मेरी ओर देखे बिना आपको कैसे रहा जाता है? ( करुणा के सागर से दिनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय?) मुख्य रूचि  होत बसिबेकि पुर रावरे,        राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे। अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,         नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे।।           भावार्थ:- (य

पशुपतिनाथ मंदिर

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 नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का इतिहास और पौराणिक मान्यता!!!!!! विश्व में दो पशुपतिनाथ मंदिर प्रसिद्ध है एक नेपाल के काठमांडू का और दूसरा भारत के मंदसौर का। दोनों ही मंदिर में मुर्तियां समान आकृति वाली है। नेपाल का मंदिर बागमती नदी के किनारे काठमांडू में स्थित है और इसे यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल किया गया है। यह मंदिर भव्य है और यहां पर देश-विदेश से पर्यटक आते हैं।           पशु अर्थात जीव या प्राणी और पति का अर्थ है स्वामी और नाथ का अर्थ है मालिक या भगवान। इसका मतलब यह कि संसार के समस्त जीवों के स्वामी या भगवान हैं पशुपतिनाथ। दूसरे अर्थों में पशुपतिनाथ का अर्थ है जीवन का मालिक। माना जाता है कि यह लिंग, वेद लिखे जाने से पहले ही स्थापित हो गया था। पशुपति काठमांडू घाटी के प्राचीन शासकों के अधिष्ठाता देवता रहे हैं। पाशुपत संप्रदाय के इस मंदिर के निर्माण का कोई प्रमाणित इतिहास तो नहीं है किन्तु कुछ जगह पर यह उल्लेख मिलता है कि मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था।           605 ईस्वी में अमशुवर्मन ने भगवान के चरण छूकर अपने को अनुग्र

पुरुषोत्तम (अधिक मास)

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 *प्रातः दर्शन शुक्रवार 18=09=2028 पुरुषोत्तम मास* पुरुषोत्तम (अधिक मास) 18 सितम्बर से 16 अक्टूबर विशेष पुरुषोत्तम मास हर तीन साल में एक बार एक अतिरिक्त माह का प्राकट्य होता है, जिसे अधिकमास, मल मास या पुरूषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म में इस माह का विशेष महत्व है। संपूर्ण भारत की हिंदू धर्मपरायण जनता इस पूरे मास में पूजा-पाठ, भगवद् भक्ति, व्रत-उपवास, जप और योग आदि धार्मिक कार्यों में संलग्न रहती है। ऐसा माना जाता है कि अधिकमास में किए गए धार्मिक कार्यों का किसी भी अन्य माह में किए गए पूजा-पाठ से 10 गुना अधिक फल मिलता है। यही वजह है कि श्रद्धालु जन अपनी पूरी श्रद्धा और शक्ति के साथ इस मास में भगवान को प्रसन्न कर अपना इहलोक तथा परलोक सुधारने में जुट जाते हैं। अब सोचने वाली बात यह है कि यदि यह माह इतना ही प्रभावशाली और पवित्र है, तो यह हर तीन साल में क्यों आता है? आखिर क्यों और किस कारण से इसे इतना पवित्र माना जाता है? इस एक माह को तीन विशिष्ट नामों से क्यों पुकारा जाता है? इसी तरह के तमाम प्रश्न स्वाभाविक रूप से हर जिज्ञासु के मन में आते हैं। तो आज ऐसे ही कई प्रश्नों