विनय-पत्रिका-127-मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं-Vinay Patrika-127-Main Jani, Haripad Rati Nahi
मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥ भावार्थ :- मैंने जान लिया है कि श्रीहरिके चरणोंमें मेरा प्रेम नहीं है, • क्योंकि सपनेमें भी मेरे मनमें वैराग्य नहीं होता (संसारके भोगोंमें वैराग्य होना ही तो भगवच्चरणों में प्रेम होनेकी कसौटी है) ॥ १ ॥ जे रघुबीर चरन अनुरागे । तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २॥ भावार्थ :- जिनका श्रीरामके चरणोंमें प्रेम है, उन्होंने सारे विषय-भोगोंको रोगकी तरह छोड़ दिया है ॥ २ ॥ काम-भुजंग डसत जब जाही। बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥ भावार्थ :- जब जिसे कामरूपी साँप डस लेता है, तभी उसे विषयरूपी नीम कड़वी नहीं लगती ॥ ३ ॥ असमंजस अस हृदय बिचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४॥ ...