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हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई-विनय पत्रिका-121-He Hari Yah Bhramki Adhika i- Vinay patrika-121

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हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई ।      देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥       भावार्थ :–  हे हरे! यह भ्रमकी ही अधिकता है कि देखने, सुनने, कहने और समझनेपर भी न तो संशय (असत्य जगत्को सत्य मानना) ही जाता है और न (एक परमात्माकी ही अखण्ड सत्ता है या कुछ और भी है ऐसा) सन्देह ही दूर होता है ॥ १ जो जग मृषा ताप-त्रय - अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।       कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे॥२॥             भावार्थ :– (कोई कहे कि) यदि संसार असत्य है, तो फिर तीनों तापोंका अनुभव किस कारणसे होता है ? (संसार असत्य है तो संसारके ताप भी असत्य हैं, परन्तु तापोंका अनुभव तो सत्य प्रतीत होता है।) (इसका उत्तर यह है कि) मृगतृष्णाका जल सत्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु जबतक भ्रम है, तबतक वह सत्य ही दीखता है दुःख होता है। इसी प्रकार जगत्में भी भ्रमवश दुःखोका अनुभव होता है ॥ २ ॥  सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागे ।       कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥         भावार्थ :– जैसे कोई सुन्दर सेजपर सोया हुआ मनुष्य सपनेमें समुद्रमें डूबनेसे भयभीत हो इसी भ्रमके कारण विशेष रह

विनय पत्रिका-117 हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै He Hari Kavan Dosh Tohin Vinay patrika-117

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हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।       जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥      भावार्थ - हे हरे! तुम्हें क्या दोष दूँ? (क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १॥  जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।       तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥      भावार्थ -  जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमें फँसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँमें गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भाँति इन्हींके पीछे भटकता हूँ ॥ २ ॥  भूत-द्रोह कृत मोह बस्य हित आपन मैं न बिचारो।       मद-मत्सर- अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥       भावार्थ -  अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता। मद, ईर्ष्या, अहंकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ! (बताइये मुझ सरीखा नीच और कौन होगा?) ॥ ३  बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।       बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥      भावार्थ -  वेदों और पुरा

विनय पत्रिका-110 कहु केहि कहिय कृपानिध Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiye Kripanidhe -

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कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।       इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥         भावार्थ — हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥ १ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।       हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥       भावार्थ—  तो सदा सुख-सम्पत्ति और स्वर्ग-नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥ २ ॥  मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।      जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥       भावार्थ—  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दुःखी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दुःख नहीं होगा ? ॥ ३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।       तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥      भावार्थ—  अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ; परन्तु हे मुरारे! आप तो (अपराधका विचार न करक

श्री वेंकटेश्वर प्रपत्ति-Venkateshwr Prapati-ईशानां जगतोऽस्य वेंकटपते-Ishanam Jagtosy Venkatpate

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श्री वेंकटेश्वर प्रपत्ति (Hindi/English) ईशानां जगतोऽस्य वेंकटपते र्विष्णोः परां प्रेयसीं           तद्वक्षःस्थल नित्यवासरसिकां तत्-क्षांति संवर्धिनीम् । पद्मालंकृत पाणिपल्लवयुगां पद्मासनस्थां श्रियं           वात्सल्यादि गुणोज्ज्वलां भगवतीं वंदे जगन्मातरम् ॥ श्रीमन् कृपाजलनिधे कृतसर्वलोक,             सर्वज्ञ शक्त नतवत्सल सर्वशेषिन् । स्वामिन् सुशील सुल भाश्रित पारिजात,           श्रीवेंकटेशचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 2 ॥ आनूपुरार्चित सुजात सुगंधि पुष्प,           सौरभ्य सौरभकरौ समसन्निवेशौ । सौम्यौ सदानुभनेऽपि नवानुभाव्यौ,           श्रीवेंकटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 3 ॥ सद्योविकासि समुदित्त्वर सांद्रराग,           सौरभ्यनिर्भर सरोरुह साम्यवार्ताम् । सम्यक्षु साहसपदेषु विलेखयंतौ,           श्रीवेंकटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 4 ॥ रेखामय ध्वज सुधाकलशातपत्र ,           वज्रांकुशांबुरुह कल्पक शंखचक्रैः । भव्यैरलंकृततलौ परतत्त्व चिह्नैः,           श्रीवेंकटेश चरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 5 ॥ ताम्रोदरद्युति पराजित पद्मरागौ,           बाह्यैर्-महोभि रभिभूत महेंद्रनीलौ । उद्य न्नखांशुभि रुदस्त शशांक