विनय पत्रिका-102।हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।Vinay patrika-102।Hari! Tum Bahut Anugrah kinho।

हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों ।
    साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥
    भावार्थ :- हे हरे! आपने बड़ी दया की, जो मुझे देवताओंके लिये भी दुर्लभ, साधनोंके स्थान मनुष्य-शरीरको कृपापूर्वक दे दिया॥
 
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार ।
     तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥
     भावार्थ :- यद्यपि आपका एक-एक उपकार करोड़ों मुखोंसे नहीं कहा जा सकता, तथापि हे नाथ! मैं कुछ और माँगता हूँ, आप बड़े उदार हैं, मुझे कृपा करके दीजिये॥

 
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक ।
     ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥
    भावार्थ :- मेरा मनरूपी मच्छ विषयरूपी जलसे एक पलके लिये भी अलग नहीं होता, इससे मैं अत्यन्त दारुण दुःख सह रहा हूँ। बार-बार अनेक योनियोंमें मुझे जन्म लेना पड़ता है॥

कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो ।
    एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥
    भावार्थ :- (इस मनरूपी मच्छको पकड़नेके लिये) हे रामजी! आप अपनी कृपाकी डोरी बनाइये और अपने चरणके चिह्न अंकुशको वंशीका काँटा बनाइये, उसमें परम प्रेमरूपी कोमल चारा चिपका दीजिये। इस प्रकार मेरे मनरूपी मच्छको बेधकर अर्थात् विषयरूपी जलसे बाहर निकालकर मेरा दुःख दूर कर दीजिये। आपके लिये तो यह एक खेल ही होगा॥

 हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोर ।
     तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै ॥
    भावार्थ :- यों तो वेदमें अनेक उपाय भरे पड़े हैं, देवता भी बहुत-से हैं, पर यह दीन किस-किसका निहोरा करता फिरे? हे तुलसीदास! जिसने इस जीवको मोहकी डोरीमें बाँधा है वही इसे छुड़ावेगा॥
 
श्री सीता राम !

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