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श्री वेंकटेश्वर स्तोत्रम् Venkatesh Strotram-कमलाकुच चूचुक कुंकमतो-Kamlakuch Chuchuk Kumkmto

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श्री वेंकटेश्वर स्तोत्रम् कमलाकुच चूचुक कुंकमतो नियतारुणि तातुल नीलतनो ।      कमलायत लोचन लोकपते विजयीभव वेंकट शैलपते ॥  सचतुर्मुख षण्मुख पंचमुखे प्रमुखा खिलदैवत मौलिमणे ।      शरणागत वत्सल सारनिधे परिपालय मां वृष शैलपते ॥ अतिवेलतया तव दुर्विषहै रनु वेलकृतै रपराधशतैः ।      भरितं त्वरितं वृष शैलपते परया कृपया परिपाहि हरे ॥ अधि वेंकट शैल मुदारमते- र्जनताभि मताधिक दानरतात् ।      परदेवतया गदितानिगमैः कमलादयितान्न परंकलये ॥ कल वेणुर वावश गोपवधू शत कोटि वृतात्स्मर कोटि समात् ।      प्रति पल्लविकाभि मतात्-सुखदात् वसुदेव सुतान्न परंकलये ॥ अभिराम गुणाकर दाशरधे जगदेक धनुर्थर धीरमते ।      रघुनायक राम रमेश विभो वरदो भव देव दया जलधे ॥ अवनी तनया कमनीय करं रजनीकर चारु मुखांबुरुहम् ।      रजनीचर राजत मोमि हिरं महनीय महं रघुराममये ॥ सुमुखं सुहृदं सुलभं सुखदं स्वनुजं च सुकायम मोघशरम् ।      अपहाय रघूद्वय मन्यमहं न कथंचन कंचन जातुभजे ॥ विना वेंकटेशं न नाथो न नाथः सदा वेंकटेशं स्मरामि स्मरामि ।      हरे वेंकटेश प्रसीद प्रसीद प्रियं वेंकटॆश प्रयच्छ प्रयच्छ ॥ अहं दूरदस्ते पदां भोजयुग्म प्रणाम

पंचमुख हनुमत कवच, श्रीपञ्चमुखहनुमत्कवचम् Panchmukh hanuman kavach । Hanuman kavach

पंचमुख हनुमत कवच का हिंदी अर्थ सहित ॐ अस्य श्रीपञ्चमुखहनुमत्कवचमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषि: | गायत्री छंद:| पञ्चमुख-विराट् हनुमान् देवता| ह्रीम् बीजम् | श्रीम् शक्ति:| क्रौम् कीलकम्| क्रूम् कवचम्| क्रैम् अस्त्राय फट् | इति दिग्बन्ध:|           हिंदी में अर्थ : इस पंचमुख हनुमत कवच स्तोत्र के ऋषि ब्रह्मा हैं, छंद गायत्री है, देवता पंचमुख विराट हनुमानजी हैं, ह्रीम् बीज मन्त्र है, श्रीम् शक्ति है, क्रौम् कीलक है, क्रूम् कवच है और ‘क्रैम् अस्त्राय फट्’ मन्त्र दिग्बन्ध हैं। श्री गरुड उवाच अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वांगसुंदर, यत्कृतं देवदेवेन ध्यानं हनुमत: प्रियम् ॥           हिंदी में अर्थ : गरुड़जी ने उद्घोष किया हे सर्वांगसुंदर, देवाधिदेव के द्वारा, उन्हें प्रिय रहने वाला जो हनुमानजी का ध्यान लगाया, मैं उनके नाम का सुमिरण करता हूँ। मैं उस सुन्दर महिला का ध्यान करता हूँ जिन्होंने आपको बनाया है। पञ्चवक्त्रं महाभीमं त्रिपञ्चनयनैर्युतम्, बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकामार्थसिद्धिदम्।।           हिंदी में अर्थ : श्री हनुमान जी पाँच मुख वाले, अत्यन्त विशालकाय, पंद्रह नेत्र (त्रि-पञ्च-नयन) धारी हैं, श्

विनय पत्रिका-132 राम-से प्रीतमकी प्रीति Vinay Patrika-132 Ram Se Pritamki Priti

राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत ।      जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥       भावार्थ - श्रीराम- सरीखे प्रीतमसे प्रेम न करके यह जीव व्यर्थ ही जीता है; अरे! जिस (विषय-सुख) को तू सुख मान रहा है, तनिक विचार तो कर, वह सुख कितना-सा है?॥१॥  जहँ- जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल, बियत।  तहँ तहँ तू विषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २॥           भावार्थ - जहाँ-जहाँ, जिस-जिस योनिमें— पृथ्वी, पाताल और स्वर्गमें तूने जन्म लिया, तहाँ-तहाँ तूने जिस विषय-सुखकी कामना की, वही प्रारब्धके अनुसार तुझे मिला (परन्तु कहीं भी तू परम सुखी तो नहीं हुआ?) ॥ २ ॥ कत बिमोह लट्यो, फट्यो गगन मगन सियत ।  तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥         भावार्थ -  क्यों मोहमें फँसकर फटे आकाश के सीनेमें तल्लीन हो रहा है? भाव यह है कि जैसे आकाशका सीना असम्भव है, वैसे ही सांसारिक विषय-भोगोंमें आनन्द मिलना असम्भव है। इसलिये हे तुलसी ! यदि तुझे आनन्दहीकी इच्छा है, तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर गुण-गानकर अमृत क्यों नहीं पीता (जिससे अमर होकर आनन्दरूप ही बन जाय।) ॥ ३ ॥

विनय पत्रिका-128-सुमिरु सनेह-सहित सीतापति-Vinay Patrika-128 Sumiru Saneh-Sahit Sitapati

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सुमिरु सनेह-सहित सीतापति।          रामचरन तजि नहिँन आनि गति ॥ १ ॥       भावार्थ :- रे मन! प्रेमके साथ श्रीजानकी-वल्लभ रामजीका स्मरण कर। क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर तुझे और कहीं गति नहीं है ॥ १ ॥ जप, तप, तीरथ, जोग समाधी।            कलिमति बिकल, न कछु निरुपाधी ॥ २ ॥          भावार्थ :-  जप, तप, तीर्थ, योगाभ्यास, समाधि आदि साधन हैं; परन्तु कलियुगमें जीवोंकी बुद्धि स्थिर नहीं है इससे इन साधनोंमें से कोई भी विघ्नरहित नहीं रहा ॥ २ ॥  करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं ।             रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥ ३ ॥           भावार्थ :-  आज पुण्य करते भी (बुद्धि ठिकाने न होनेसे) पापोंका नाश नहीं होता। रक्तबीज राक्षसकी भाँति ये पाप तो बढ़ते ही जा रहे हैं। भाव यह है कि बुद्धिकी विकलतासे पापमें पुण्य-बुद्धि और पुण्यमें पाप-बुद्धि हो रही है, इससे पुण्य करते भी पाप ही बढ़ रहे हैं ॥ ३ ॥   हरति एक अघ-असुर- जालिका ।             तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका ॥ ४ ॥           भावार्थ :-    हे तुलसीदास! इस पापरूपी राक्षसोंके समूहको नाश तो केवल प्रभुकी कृपारूपी कालिकाजी ही करेंगी। (भगवत्कृपाकी

विनय-पत्रिका-127-मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं-Vinay Patrika-127-Main Jani, Haripad Rati Nahi

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मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं।            सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥            भावार्थ :-  मैंने जान लिया है कि श्रीहरिके चरणोंमें मेरा प्रेम नहीं है, • क्योंकि सपनेमें भी मेरे मनमें वैराग्य नहीं होता (संसारके भोगोंमें वैराग्य होना ही तो भगवच्चरणों में प्रेम होनेकी कसौटी है) ॥ १ ॥  जे रघुबीर चरन अनुरागे ।            तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २॥           भावार्थ :-  जिनका श्रीरामके चरणोंमें प्रेम है, उन्होंने सारे विषय-भोगोंको रोगकी तरह छोड़ दिया है ॥ २ ॥   काम-भुजंग डसत जब जाही।           बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥           भावार्थ :-  जब जिसे कामरूपी साँप डस लेता है, तभी उसे विषयरूपी नीम कड़वी नहीं लगती ॥ ३ ॥   असमंजस अस हृदय बिचारी।            बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४॥           भावार्थ :- ऐसा विचारकर हृदयमें बड़ा असमंजस हो रहा है कि क्या करूँ? इसी विचारसे मेरे मनमें नित नया सोच बढ़ता जा रहा है ॥ ४॥ जब कब राम-कृपा दुख जाई ।            तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥ ५ ॥          भावार्थ :-   हे तुलसीदास! और कोई उपाय नहीं है; जब कभी यह दुःख दूर होगा तो बस श्रीराम-कृ

विनय पत्रिका-126-मन मेरे, मानहि सिख मेरी-Vinay Patrika-126-Man Mere Manhi Sikh Meri

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मन मेरे, मानहि सिख मेरी ।            जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥           भावार्थ :— हे मेरे मन! यदि तू अपने हृदयमें भगवान्की शक्ति चाहता है, ते मेरी सीख मान ॥ १ ॥  उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते ।            सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥            भावार्थ:-  भगवान्ने (गर्भवाससे लेकर अबतक) तेरे ऊपर जो (अपार) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर ॥ २ ॥  दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई।            सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥            भावार्थ :-  सुख-दुःख, मान-अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी ॥ ३ ॥  सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही ।            जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४॥           भावार्थ :-  अरे दुष्ट! इस शरीरको तो कालने ग्रस ही रखा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे ॥ ४॥   तुलसिदास बिनु असि मति आये ।            मिलहिं न राम कपट लौ लाये ॥ ५॥           भावार्थ :- तुलसीदास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट-समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं ॥ ५ ॥

हिंदू नववर्ष संवत 2079 Hindu New Vars 2022 Samvat 2079-2अप्रैल2022

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हिंदू नववर्ष संवत 2079            कालगणना के अनुसार हिंदू वर्ष का चैत्र महीना बहुत ही खास होता है क्योंकि यह माह हिंदू नववर्ष का पहला महीना होता है।            चैत्र माह से हिंदू नववर्ष आरंभ हो जाता है। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि हिंदू नववर्ष का पहला दिन माना जाता है।            चैत्र प्रतिपदा तिथि को गुड़ी पड़वा भी कहते हैं। इसके अलावा इस तिथि पर चैत्र नवरात्रि भी आरंभ हो जाते हैं।               चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को वर्ष प्रतिपदा, उगादि और गुड़ी पड़वा कहा जाता है।            वैसे तो पूरी दुनिया अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार नया साल जनवरी के महीने से शुरू हो जाता है,लेकिन वैदिक हिंदू परंपरा और सनातन काल गणना में चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि पर नववर्ष की शुरुआत होती है।            पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन ब्रह्राजी ने समस्त सृष्टि की रचना की थी इसी कारण से हिंदू मान्यताओं में नए वर्ष का शुभारंभ होता है।  आइए विस्तार से जानते हैं हिंदू नववर्ष से जुड़ी कई जानकारियां...           आप सभी के मन में यह सवाल उठता होगा कि चैत्र महीना जोकि हिंदू नववर

विनय पत्रिका-125मैं केहि कहाँ बिपति अति भारीVinay patrika-125-Mai Kehi Kaha Bipati Ati

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मैं केहि कहाँ बिपति अति भारी।       श्रीरघुवीर धीर हितकारी ॥ १ ॥         भावार्थ :- हे रघुनाथजी! हे धैर्यवान्! (बिना ही उकतायें) हित करनेवाले मैं तुम्हें छोड़कर, अपना दारुण विपत्ति और किसे सुनाऊँ ? ॥१॥ मम हृदय भवन प्रभु तोरा।       तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥      भावार्थ :- हे नाथ! मेरा हृदय है तो तुम्हारा निवास स्थान, परन्तु आजकल उसमें बस गये हैं आकर बहुत-से चोर! तुम्हारे मन्दिरमें चोरोंने घर कर लिया है॥ २॥   अति कठिन करहिं बरजोरा।       मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३॥        भावार्थ :- (मैं उन्हें निकालना चाहता हूँ, परन्तु वे लोग बड़े ही कठोरहृदय हैं) सदा जबरदस्ती ही करते रहते हैं। मेरी विनती-निहोरा कुछ भी नहीं मानते ॥ ३॥  तम, मोह, लोभ, अहँकारा।       मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥      भावार्थ :- इन चोरोंमें प्रधान सात हैं-अज्ञान, मोह, लोभ, अहंकार, मद, क्रोध और ज्ञानका शत्रु काम ॥ ४॥   अति करहिं उपद्रव नाथा।       मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥       भावार्थ :- हे नाथ! ये सब बड़ा ही उपद्रव कर रहे हैं, मुझे अनाथ जानकर कुचले डालते हैं॥ ५॥ मैं एक, अमित बटपारा।       कोउ सुनै न मोर

विनय पत्रिका-124-जौ निज मन परिहरै बिकारा-Vinay patrika-124-Jau Nij Man Pariharai Bikara

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जौ निज मन परिहरै बिकारा ।      तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा ॥ १ ॥        भावार्थ :- यदि हमारा मन विकारोंको छोड़ दे, तो फिर द्वैतभावसे उत्पन्न संसारी दुःख, भ्रम और अपार शोक क्यों हो? (यह सब मनके विकारोंके कारण ही तो होते हैं) ॥ १ ॥  सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआई।        त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं ॥ २ ॥        भावार्थ :-  शत्रु, मित्र और उदासीन इन तीनोंकी मनने ही हठसे कल्पना कर रखी है। शत्रुको साँपके समान त्याग देना चाहिये, मित्रको सुवर्णकी तरह ग्रहण करना चाहिये और उदासीनकी तृणकी तरह उपेक्षा कर देनी चाहिये। ये सब मनकी ही कल्पनाएँ हैं ॥ २ ॥   असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे।        सरग, नरक, चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥      भावार्थ :-  जैसे (बहुमूल्य) मणिमें भोजन, वस्त्र, पशु और अनेक प्रकारकी चीजें रहती हैं वैसे ही स्वर्ग, नरक, चर, अचर और बहुत से लोक इस मनमें रहते हैं। भाव यह कि छोटी-सी मणिके मोलसे जो चाहे सो खाने, पीने, पहननेकी चीजें खरीदी जा सकती हैं, वैसे ही इस मनके प्रतापसे जीव स्वर

विनय पत्रिका-123-अस कछु समुझि परत रघुराया-As Kchhu Samujhi parat Raghuraya-Vinay patrika-123

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अस कछु समुझि परत रघुराया !      बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥        भावार्थ :- हे रघुनाथजी! मुझे कुछ ऐसा समझ पड़ता है कि हे दयालु! हे सेवक-हितकारी! तुम्हारी कृपाके बिना न तो मोह ही दूर हो सकता है और न माया ही छूटती है।।  बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।        निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई ॥ २ ॥          भावार्थ :- जैसे रातके समय घरमें केवल दीपककी बातें करनेसे अँधेरा दूर नहीं होता, वैसे ही कोई वाचक ज्ञान में कितना ही निपुण क्यों न हो, संसार-सागरको पार नहीं कर सकता ॥ २ ॥  जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।       चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥         भावार्थ :- जैसे कोई एक दीन, दुःखिया, भोजनके अभावमें भूखके मारे दुःख पा रहा हो और कोई उसके घरमें कल्पवृक्ष तथा कामधेनुके चित्र लिख-लिखकर उसकी विपत्ति दूर करना चाहे तो कभी दूर नहीं हो सकती। वैसे ही केवल शास्त्रोंकी बातोंसे ही मोह नहीं मिटता ॥ ३ ॥  षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।        बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४

मैं हरि, साधन करइ न जानी। He Hari, Sadhan Karai N Jani-विनय पत्रिका-122 Vinay patrika-122

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मैं हरि, साधन करइ न जानी।       जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥        भावार्थ :- हे हरे! मैंने (अज्ञानके नाशके लिये) साधन करना नहीं जाना। जैसा रोग था वैसी दवा नहीं की। इसमें इलाजका क्या दोष है ? ॥ १ ॥   सपने नृप कहँ घंटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे।        बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥        भावार्थ :- जैसे सपनेमें किसी राजाको ब्रह्महत्याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण व्याकुल हुआ जहाँ-तहाँ भटकता फिरे, परन्तु जबतक वह जागेगा नहीं तबतक सौ करोड़ अश्वमेधयज्ञ करनेपर भी वह शुद्ध नहीं होगा, वैसे ही तत्त्वज्ञानके बिना अज्ञानजनित पापोंसे छुटकारा नहीं मिलता॥२॥    स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।        बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥         भावार्थ :- जैसे अज्ञानके कारण मालामें महान् भयावने सर्पका भ्रम हो जाता है और वह (मिथ्या सर्पका भ्रम न मिटनेतक) अनेक हथियारों के द्वारा बलसे मारते-मारते थक जानेपर भी नहीं मरता, साँप होता तो हथियारोंसे मरता; इसी प्रकार यह अज्ञानसे भासनेवाला संसार भी ज्ञान हुए बिना

हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई-विनय पत्रिका-121-He Hari Yah Bhramki Adhika i- Vinay patrika-121

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हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई ।      देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥       भावार्थ :–  हे हरे! यह भ्रमकी ही अधिकता है कि देखने, सुनने, कहने और समझनेपर भी न तो संशय (असत्य जगत्को सत्य मानना) ही जाता है और न (एक परमात्माकी ही अखण्ड सत्ता है या कुछ और भी है ऐसा) सन्देह ही दूर होता है ॥ १ जो जग मृषा ताप-त्रय - अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।       कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे॥२॥             भावार्थ :– (कोई कहे कि) यदि संसार असत्य है, तो फिर तीनों तापोंका अनुभव किस कारणसे होता है ? (संसार असत्य है तो संसारके ताप भी असत्य हैं, परन्तु तापोंका अनुभव तो सत्य प्रतीत होता है।) (इसका उत्तर यह है कि) मृगतृष्णाका जल सत्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु जबतक भ्रम है, तबतक वह सत्य ही दीखता है दुःख होता है। इसी प्रकार जगत्में भी भ्रमवश दुःखोका अनुभव होता है ॥ २ ॥  सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागे ।       कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥         भावार्थ :– जैसे कोई सुन्दर सेजपर सोया हुआ मनुष्य सपनेमें समुद्रमें डूबनेसे भयभीत हो इसी भ्रमके कारण विशेष रह

विनय पत्रिका-120हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी He Hari! Kas N Harhu Bhram Bhari- Vinay patrika-120

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हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी ।            जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥            भावार्थ – हे हरे! मेरे इस (संसारको सत्य और सुखरूप आदि माननेके) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत् है, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य-सा ही भासता है ॥ १ ॥   अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।           बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीरकी नाईं ॥ २ ॥          भावार्थ – मैं यह जानता हूँ कि (शरीर-धन-पुत्रादि) विषय यथार्थमें नहीं है, किन्तु हे स्वामी! इतनेपर भी इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता। मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही हठ (मोह) से तोतेकी तरह परवश बँधा पड़ा हूँ (स्वयं अपने ही अज्ञानसे बँध-सा गया हूँ) ॥ २ ॥ सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।            बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥         भावार्थ – जैसे किसीको स्वप्न में अनेक प्रकारके रोग हो जायँ जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैद्य अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीड़ा नहीं मिटती (इसी प्रकार माया

विनय पत्रिका-117 हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै He Hari Kavan Dosh Tohin Vinay patrika-117

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हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।       जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥      भावार्थ - हे हरे! तुम्हें क्या दोष दूँ? (क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १॥  जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।       तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥      भावार्थ -  जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमें फँसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँमें गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भाँति इन्हींके पीछे भटकता हूँ ॥ २ ॥  भूत-द्रोह कृत मोह बस्य हित आपन मैं न बिचारो।       मद-मत्सर- अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥       भावार्थ -  अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता। मद, ईर्ष्या, अहंकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ! (बताइये मुझ सरीखा नीच और कौन होगा?) ॥ ३  बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।       बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥      भावार्थ -  वेदों और पुरा

विनय पत्रिका-116माधव! असि तुम्हारि यह माया Madhav! Asi Tumhari Yah Maya- Vinay patrika-116।

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माधव! असि तुम्हारि यह माया।      करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥        भावार्थ - हे माधव! तुम्हारी यह माया ऐसी (दुस्तर) है कि कितने ही उपाय करके पच मरो, पर जबतक तुम दया नहीं करते तबतक इससे पार पा जाना असम्भव ही है॥१॥ सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।      जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥२॥      भावार्थ -  सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ तथा दूसरोंको समझाता हूँ, पर तुम्हारी इस मायाका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आता और जबतक इसके वास्तविक रहस्यका अनुभव नहीं होता, तबतक मोहजनित संसारकी महान् विपत्तियाँ दु:ख देती ही रहेंगी ॥ २ ॥  ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।      तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि बासर धावै ॥ ३॥      भावार्थ -  ब्रह्मामृत बड़ा ही मधुर और शान्तिकर है, यदि मनको वह अमृतरस कहीं चखनेको मिल जाय, तो फिर यह विषयरूपी झूठे मृगजलके लिये क्यों रात-दिन भटकता फिरे ॥ ३ ॥ जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै।      सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥४॥      भावार्थ -  जिसके घरमें ही निर्मल चिन्तामणि वि

विनय पत्रिका-115 माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै Madhav! Moh-Phans Kyon Tutai- Vinay patrika-115।

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माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै ।      बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥        भावार्थ - हे माधव ! मेरी यह मोहकी फाँसी कैसे टूटेगी? बाहरसे चाहे करोड़ों साधन क्यों न किये जायँ, उनसे भीतरकी (अज्ञानकी) गाँठ नहीं छूट सकती ॥ १ ॥ घृतपूरन कराह  अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै ।      ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥२॥      भावार्थ -  घीसे भरे हुए कड़ाहमें जो चन्द्रमाकी परछाईं दिखायी देती है, वह (जबतक घी रहेगा तबतक) सौ कल्पतक ईंधन और आग लगाकर औटानेसे भी नष्ट नहीं हो सकती। (इसी प्रकार जबतक मोह रहेगा तबतक यह आवागमनकी फाँसी भी रहेगी) ॥ २ ॥  तरु- कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरे न जैसे।      साधन करिय बिचार हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥      भावार्थ -  जैसे किसी पेड़के कोटरमें कोई पक्षी रहता हो, वह उस पेड़के काट डालनेसे नहीं मर सकता, उसी प्रकार बाहरसे कितने ही साधन क्यों न किये जायँ, पर बिना विवेकके यह मन कभी शुद्ध होकर एकाग्र नहीं हो सकता ॥ ३ ॥  अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।      मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥      भावार्थ -  जैसे साँपके बिल

विनय पत्रिका-110 कहु केहि कहिय कृपानिध Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiye Kripanidhe -

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कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।       इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥         भावार्थ — हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥ १ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।       हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥       भावार्थ—  तो सदा सुख-सम्पत्ति और स्वर्ग-नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥ २ ॥  मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।      जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥       भावार्थ—  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दुःखी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दुःख नहीं होगा ? ॥ ३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।       तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥      भावार्थ—  अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ; परन्तु हे मुरारे! आप तो (अपराधका विचार न करक

विनय पत्रिका-112-केशव! कारण कौन गुसाईं-Karn Kaun Gusain tajeu-Vinay patrika-112।

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केशव ! कारण कौन गुसाईं।           जेहि अपराध असाध जानी मोहिं तजेउ अग्यकि नाईं ।।1           भावार्थ- हे केशव! हे स्वामी! ऐसा क्या कारण (अपराध) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया? ॥ १॥ परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।           तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥             भावार्थ- (यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं, और) जिनके आचरण बड़े ही पवित्र हैं, जो कोमलहृदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं, तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था? क्या उनसे आपकी कोई खास रिश्तेदारी थी ? ॥ २ ॥ काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे ।           सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥           भावार्थ-  हे हरे! इस जीवका काल, कर्म,सुगति, दुर्गति सब कुछ आपहीके हाथ है; अतः हे प्रभो ! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर उधर भटकता न फिरूँ ॥ ३ ॥  जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे ।           मन-बच-करम नरक सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥           भावा

हिंदी गिनती 01 To 100 Numbers Hindi and English Counting ginti

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विनय पत्रिका-114।माधव! मो समान जग माहीं-Madhav! Mo Saman Jag Mahin-Vinay patrika-114।

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माधव! मो समान जग माहीं ।       सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन - बिषय कोउ नाहीं ॥१ ॥      भावार्थ :-   हे माधव! संसारमें मेरे समान, सब प्रकारसे साधनहीन, पापी, अति दीन और विषय-भोगोंमें डूबा हुआ दूसरा कोई नहीं है ॥   तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत - हित ईस न त्यागी ।        मैं दुख - सोक - बिकल कृपालु ! केहि कारन दया न लागी ॥      भावार्थ :-   और तुम्हारे समान, बिना ही कारण कृपा करनेवाला, दीन-दुःखियोंके हितार्थ सब कुछ त्याग करनेवाला स्वामी कोई दूसरा नहीं है। भाव यह है कि दीनोंके दुःख दूर करनेके लिये ही तुम वैकुण्ठ या सच्चिदानन्दघनरूप छोड़कर धराधाममें मानवरूपमें अवतीर्ण होते हो, इससे अधिक त्याग और क्या होगा? इतनेपर भी मैं दु:ख और शोकसे व्याकुल हो रहा हूँ। हे कृपालो! किस कारण तुमको मुझपर दया नहीं आती? ॥   नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।       ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥      भावार्थ :-  मैं यह मानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, सब मेरा ही अपराध है। क्योंकि तुमने मुझे जो ज्ञानका भण्डार यह मनुष्य-शरीर दिया, उसे पाकर भी मैंने तुम सरीख

भक्त नामावली- Bhakt Namavali-mukhy mahant Kam Rati Ganpati

 भक्त नामावली           हमसों इन साधुन सों पंगति। जिनको नाम  लेत दुःख छूटत, सुख लूटत तिन संगति।। मुख्य महंत काम रति गणपति, अज महेस नारायण। सुर नर असुर मुनि पक्षी पशु, जे हरि भक्ति परायण।। वाल्मीकि नारद अगस्त्य शुक, व्यास सूत कुल हीना। शबरी स्वपच वशिष्ठ विदुर, विदुरानी प्रेम प्रवीणा।। गोपी गोप द्रोपदी कुंती, आदि पांडवा ऊधो। विष्णु स्वामी निम्बार्क माधो, रामानुज मग सूधो।। लालाचारज धनुरदास, कूरेश भाव रस भीजे। ज्ञानदेव गुरु शिष्य त्रिलोचन, पटतर को कहि दीजे।। पदमावती चरण को चारन, कवि जयदेव जसीलौ। चिंतामणि चिदरूप लखायो, बिल्वमंगलहिं रसिलौ।। केशवभट्ट श्रीभट्ट नारायण, भट्ट गदाधर भट्टा। विट्ठलनाथ वल्लभाचारज, ब्रज के गूजरजट्टा।। नित्यानन्द अद्वैत महाप्रभु, शची सुवन चैतन्या। भट्ट गोपाल रघुनाथ जीव, अरु मधु गुसांई धन्या।। रूप सनातन भज वृन्दावन, तजि दारा सुत सम्पत्ति। व्यासदास हरिवंश गोसाईं, दिन दुलराई दम्पति।। श्रीस्वामी हरिदास हमारे, विपुल विहारिणी दासी। नागरि नवल माधुरी वल्लभ, नित्य विहार उपासी।। तानसेन अकबर करमैति, मीरा करमा बाई। रत्नावती मीर माधो, रसखान रीति रस गाई।। अग्रद

सत्यनारायण भगवान कथा । SatyaNarayan Vrat Katha।

     सत्य को नारायण (विष्णु के रूप में पूजना ही सत्यनारायण की पूजा है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य हैं, बाकी सब माया है।      भगवान विष्णु के कई रूपों की पुजा की जाती है, उनमें से एक सत्यनारायण भगवान के स्वरूप इस कथा में बताया गया है।  व्रत कथा के अलग-अलग अध्यायों में छोटी कहानियों के माध्यम से बताया गया है कि सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती है। इसलिए जीवन में सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए। ऐसा न करने पर भगवान न केवल नाराज होते हैं अपितु दंड स्वरूप संपति और बंधु बांधवों के सुख से वंचित भी कर देते हैं। इस अर्थ में यह कथा लोक में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। प्रायः पूर्णमासी को इस कथा का परिवार में वाचन किया जाता है। अन्य पर्वों पर भी इस कथा को विधि विधान से करने का निर्देश दिया गया है। इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत , पंचगव्य , सुपारी , पान , तिल , मोली , रोली , कुमकुम , दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा