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विनय पत्रिका-101 | जाऊँ कहाँ तजी चरण तुम्हारे | Vinay patrika-101| पद संख्या १०१

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     जाऊँ  कहाँ  तजि चरण तुम्हारे | काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दिन पियारे ||          भावार्थ :- हे नाथ-आपके चरणों को छोडकर और कहाँ जाऊँ?  संसारमें 'पतित पावन' नाम और किसका है ? (आपकी भाँति ) दिन -दुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं ?|| कौने देव बराइ बिरद -हित, हठी हठी अधम उधारे | खग, मृग , ब्याध, पषन, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ||            भावार्थ :- आजकल किस देवताने अपने बानेको रखने के लिए हठपूर्वक चुन-चुनकर निचों का उद्धार किया है ? किस देवताने पक्षी (जटायु)पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर(अहल्या), जड वृक्ष(यमलार्जुन) और यवनों का उद्धार किया है ?। देव,दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब , माया-बिबस बिचारे | तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ||            भावार्थ :- देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मानुष आदि सभी बेचारे मायके वश हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बन्धनको कैसे खोल सकता है) इसलिए हे प्रभु! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथों में सौंपकर क्या करे? ।। श्री सिता राम! 🙏 कृपया लेख पसंद आये तो अपना विचार कॉमेंट बॉक्स में जरूर साझा करें ।    इसे शेयर करें, जि

विनय पत्रिका- 94। काहे ते हरि मोहिं बिसारो।Kahe Te Hari Mohi Bisaro। Vinay Patrika-94।

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     काहे ते हरि मोहिं बिसारो। जानत निज महिमा मेरे अघ , तदपि न नाथ सँभारो।।      भावार्थ :- हे हरे! आपने मुझे क्यों भुला दिया?  हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनों को ही जानते हैं। तो भी मुझे क्यों नहीं संभालते।।      पतित- पुनीत, दीनहित, असरन- सरन कहत श्रुति चारो। हौं नहीं अधम, सभीत, दिन? किधौं बेदन मृषा पुकारो?।।      भावार्थ :-  आप पतितों को पवित्र करने वाले, दिनों के हितकारी और अशरण को शरण देने वाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं। तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ? अथवा क्या वेदों की यह घोषणा ही झूठी है?।।      खग- गनिका- गज- व्याध-पाँति जहँ हौं हूँ बैठरो। अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पतवारो फारो।। भावार्थ :-  (पहले तो) मुझे आपने पक्षी( जटायु गृर्ध) गणिका(जीवन्ती), हाथी और व्याध (वाल्मिकी) की पंक्तिमें बैठा लिया। यानी पापी स्वीकार कर लिया। अब हे कृपानिधान! आप किसकी शर्म करके मेरी पारसी हुई पत्तल फाड़ रहे हैं।।      जो कलिकाल प्रबल अति होतो , तुव निदेसतें न्यारो। तौ हरि रोष भरोस दोष गुन हेति भजते तजि गारो।।      भावार्थ :-  यदि कलिकाल आपसे अधिक बलवान होता और आप

विनय पत्रिका-66।राम जपु, राम जपु,राम जपु बाबरे।Ram Japu,Ram Japu,Ram Japu बबरे|Vinay Patrika-66।

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राम जपु, राम जपु, राम जपु बाबरे। घोर भव- नीर- निधि नाम निज नाव रे।। भावार्थः-  अरे पागल! राम जप, राम जप, राम जप। इस भयानक संसाररूपी समुद्र से पार उतरनेके लिये श्रीरामनाम ही अपनी नाव है। अर्थात इस रामनाम रूपी नावमें बैठकर मनुष्य जब चाहे तभी पार उतर सकता है, क्योंकि यह मनुष्य के अधिकार में है।। एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे। ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम- समाधि रे।। भावार्थः-  इसी एक साधन के बलसे सब ऋद्धि-सिद्धियों को साध ले, क्योंकि योग, संयम और समाधि आदि साधनों को कलिकाल रूपी रोगने ग्रस लिया है।। भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे। राम नाम ही सों अंत सब ही को काम रे।। भावार्थः- भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो, अन्तमें सबको एक रामनाम से ही काम पड़ेगा।। जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे। धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे।। भावार्थः-  यह जगत भ्रमसे आकाश में फले-फूले दिखनेवाले बगीचे के समान सर्वथा मिथ्या है, धुएँ के महलों की भाँति क्षण-क्षणमें दिखने और मिटनेवाले इन सांसारिक पदार्थों को देखकर तू भूल मत ।। राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे। तुलसी परोसो त्यागि मांगै कूर

विनय पत्रिका 252| तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । Pad No-252 Vinay patrika| पद संख्या 252 ,

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      तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । मौसम कुटिल- मौलिमनि नहिं जग, तुमसम हरि! न हरन कुटिलाई ।।          भावार्थ - हे  महाराज रामचन्द्रजी! आपके समान तो कोई दिनोंका कल्याण करनेवाला बंधू नहीं है और मेरे समान कोई दिन नहीं है! मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं है || हौं मन- बचन- कर्म पटक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई। हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ- हित, चित यही सुरति कबहुँ नहिं जाई।।           भावार्थ - मैं मनसे, वचनसे और कर्म से पापोंमें रत हूँ और हे कृपालो! आप पापियोंको परमगति देनेवाले हैं | मैं अनाथ हूँ और हे प्रभु  आप अनाथों का हिट करनेवाले हैं | यह बात मेरे मन से कभी नहीं जाती || हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई। हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई।।           भावार्थ - मैं दुःखी हूँ, आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं| आपका यश यह वेद-पुराण गा रहे हैं| मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं| (आपके और मेरे इतने संबन्ध होनेपर भी) क्या कार

विनय पत्रिका 270 कबहुँ कृपा करि रघुबीर ! Pad No-270 Vinay patrika| पद संख्या -270

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कबहुँ कृपा करि रघुबीरसिदास ! मोहू चितैहो |     भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि ! अवगुन अमित बितैहो  ||      भावार्थ :- हे ! रघुबीर ! कभी कृपा कर मेरी ओर भी देखेंगे ? हे दयानिधान ! 'भला-बुरा जो कुछ भी हूँ , आपका दास हूँ ', अपने मनमें इस बात को समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अंत कर देंगे ? (अपनी दया से मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगें ?)|| जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो | हौं सनाथ ह्वैहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ||       भावार्थ :-  (अबसे पूर्व)  प्रत्येक जन्म में यह मन मुझे जीतता चला आया है (मैं इससे हारकर विषयोंमें फँसता रहा हूँ ), इस बार क्या आप मुझे इससे जीता देंगे ?) (क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणों में लग जाएगा ?) (तब) मैं तो सनाथ  हो ही जाऊंगा किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रता से नहीं डरेंगे,तो 'अनाथ-पति' पुकारे जाने लगेंगे (मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ- नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा )|| बिनय करों अपभयहु तेन, तुम्ह परम हिते हो |  तुलसि दास कासों कहै, तुमही सब मेरे , प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो ||      भावार

विनय पत्रिका-210 |औरु कहँ ठौर रघुबंस -मणि! मेरे। Auru Kaha Thaur Raghuvasns Mani ! Vinay patrika| पद संख्या 210

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औरु कहँ ठौर रघुबंस-मनि! मेरे।       पतित -पावन प्रनत-पाल असरन-सरन, बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि करे।।            भावार्थ :- हे रघुवंशमणि! मेरे लिये (आपके चरणोंको छोड़कर) और कहाँ ठौर है? पापियोंको पवित्र करनेवाले, शरणागतोंका पालन करनेवाले एवं अनाथोंको आश्रय देनेवाले एक आप ही हैं। आपका-सा बाँका बाना किस बानेवालेका है? (किसीका भी नहीं ) || समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,      करत नहिं कान बिनती बदन फेरे। तदपि ह्वै निडर हैं कहौं करुणा-सिंधु,       क्योंअब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे।।           भावार्थ :-  हे रघुनाथजी! मेरे अपराधोंको मनमें  समझकर अत्यन्त क्रोध यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे हुए हैं, तथापि मैं तो निर्भय होकर, हे करुणा के समुद्र ! यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर (मेरी दिन पुकार सुनक र ) मेरी ओर देखे बिना आपको कैसे रहा जाता है? ( करुणा के सागर से दिनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय?) मुख्य रूचि  होत बसिबेकि पुर रावरे,        राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे। अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,         नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे।।           भावार्थ:- (य

पशुपतिनाथ मंदिर

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 नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का इतिहास और पौराणिक मान्यता!!!!!! विश्व में दो पशुपतिनाथ मंदिर प्रसिद्ध है एक नेपाल के काठमांडू का और दूसरा भारत के मंदसौर का। दोनों ही मंदिर में मुर्तियां समान आकृति वाली है। नेपाल का मंदिर बागमती नदी के किनारे काठमांडू में स्थित है और इसे यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल किया गया है। यह मंदिर भव्य है और यहां पर देश-विदेश से पर्यटक आते हैं।           पशु अर्थात जीव या प्राणी और पति का अर्थ है स्वामी और नाथ का अर्थ है मालिक या भगवान। इसका मतलब यह कि संसार के समस्त जीवों के स्वामी या भगवान हैं पशुपतिनाथ। दूसरे अर्थों में पशुपतिनाथ का अर्थ है जीवन का मालिक। माना जाता है कि यह लिंग, वेद लिखे जाने से पहले ही स्थापित हो गया था। पशुपति काठमांडू घाटी के प्राचीन शासकों के अधिष्ठाता देवता रहे हैं। पाशुपत संप्रदाय के इस मंदिर के निर्माण का कोई प्रमाणित इतिहास तो नहीं है किन्तु कुछ जगह पर यह उल्लेख मिलता है कि मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था।           605 ईस्वी में अमशुवर्मन ने भगवान के चरण छूकर अपने को अनुग्र

श्री जगन्नाथ भगवान् के श्री विग्रह का स्वरूप बड़ी-बड़ी आंखों वाला क्यों है ?

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            एक बार द्वारिका में रुक्मणी आदि रानियों ने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे श्रीकृष्ण व गोपियों की बचपन वाली प्रेम लीलाएं सुनना चाहतीं हैं । पहले तो माता रोहिणी ने अपने पुत्र की अंतरंग लीलाओं को सुनाने से मना कर दिया।किन्तु रानियों के बार-बार आग्रह करने पर मैया मान गईं और उन्होंने सुभद्रा जी को महल के बाहर पहरे पर खड़ा कर दिया और महल का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया ताकि कोई अनाधिकारी जन विशुद्ध प्रेम के उन परम गोपनीय प्रसंगों को सुन न सके । बहुत देर तक भीतर कथा प्रसंग चलते रहे और सुभद्रा जी बाहर पहरे पर सतर्क होकर खड़ी रहीं। इतने में द्वारिका के राज दरबार का कार्य निपटाकर श्रीकृष्ण और बलराम जी वहां आ पहुंचे । उन्होंने महल के भीतर जाना चाहा लेकिन सुभद्रा जी ने माता रोहिणी की आज्ञा बता कर उनको भीतर प्रवेश न करने दिया । वे दोनों भी सुभद्रा जी के पास बाहर ही बैठ गए और महल के द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगे । उत्सुकता वश श्रीकृष्ण भीतर चल रही वार्ता के प्रसंगों को कान लगा कर सुनने लगे।           माता रोहिणी ने जब द्वारिका की रानियों को गोपियों के निष्काम प्रेम के भावपूर्ण प्

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। Jai Jai Surnayak Jan Sukhdayak |Manas Stuti | मानस स्तुति |

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  पृथ्वी पर  बढ़ते  पापाचार और अत्याचारों से भयभीत होकर धरती ,  ऋषि-  मुनि और समस्त देवता सत्यलोक श्रीब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्मा जी ने कहा आप सभी भगवान श्री हरि की शरणागति करें। फिर सभी ने भगवान श्री हरि की वन्दना (स्तुति) की। 'बालकांड' के इस अंश का प्रतिदिन पाठ करने से  लक्ष्मीपति श्रीहरि की कृपा बनी रहती है और चित्त-मन, दिल-दिमाग स्वस्थ, प्रसन्न एवं शान्त रहता है। जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता। गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥ पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥ जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥ जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥      जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥ जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥      सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना। ज

श्री रामचंद्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणम् | Sri Ramchandra Kripalu Bhaj मन| मानस स्तुति २| Manas Stuti 2|

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श्री रामचंद्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणम् | नवकंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कन्जारुणम्‌ || कंदर्प अगणित अमित छवि नवनील नीरज सुन्दरम्‌ | पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम ||      भजु दीन बंधु दिनेश दानव दैत्यवंश निकंदनम | रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथनन्दनम्‌ ||     सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभूषणं | आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ||      इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्‌ | मम हृदय कंज निवास कुरु कामादि खल दल गंजनम्‌ || यह भी पढ़े श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित  मानस स्तुति  । जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता  । लिंक :-  https://amritrahasya.blogspot.com/2020/12/manas-stuti.html     मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो | करुणानिधान सुजान शील सनेह जानत रावरो ||  एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली | तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली || यह भी पढ़ें :- भय प्रगत कृपाला दिन दयाला  लिंक :-   https://amritrahasya.blogspot.com/2021/06/bhaye-pragat-kripala-din-dayal.html राम मंत्र नीलाम्बुज श्यामल कोमल

गजेन्द्र मोक्ष-कथा | गज और ग्राह कथा |Grah-Gajendra Katha | Gajendra Moksh Katha |

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  एक दिन गजेन्द्र अपनी पत्नी हथिनी, पुत्र , पौत्रों, के साथ प्यास से व्याकुल होकर त्रिकुट नाम का एक विशाल पर्वत जो चारों तरफ से क्षीरसागर से घिरा है, उस त्रिकुट पर्वत की तराई के स्थित उद्यान में स्वर्ण कमलों से विलसित एक सरोवर पर वह पहुँचा।      पानी पीने के लिए अपने झुंड के साथ सरोवर में प्रवेश कर पानी पीकर वह जल क्रीड़ा में मस्त हो गया। उसने सरोवर में खूब स्नान किया और थकान मिटायी। उधर सरोवर का ग्राह गजेंद्र एवं उसके झुंड द्वारा जलक्रीड़ा करने से अशांत हो गया , परन्तु गजेंद्र गृहस्थ पुरुषों के समान अपने ऊपर मंडराते हुये संकट को नहीं समझ सका , ग्राह व्याकुल   होकर उस गजेंद्र का पैर पकड़ लिया।      कुछ समय तक उसके झुंड के हाथी , हथिनियों एवं परिवार के लोगों ने गजेन्द्र को ग्राह की पकड़ से खिंचकर निकालने का भरसक प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हुए । निराश होकर उन लोगों ने गजेंद्र को सरोवर में छोड़ दिया। ग्राह उसे खींच रहा था। इस प्रकार गज और ग्राह हजारों वर्षों तक उस सरोवर में लड़ते रहे। इस संसार में भी ऐसा सुना या देखा जाता है कि जबतक किसी  प्राणी को अपनी शक्ति या धन , जन , बल

श्री हनुमान चालीसा |Shri Hanuman Chalisa|श्री गुरु चरण सरोज रज।Sri Guru Charan Saroj Raj।

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  दोहा :- श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारी  । बरनौ रघुवर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ।। बुद्धिहिन तनु जानि के , सुमिरौ पवन कुमार । बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।। चौपाई :- जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥      राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा ॥ महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी ॥      कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा ॥ हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे, काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥      शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन ॥ विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर ॥      प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया ॥ सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा ॥      भीम रुप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे ॥ लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये ॥      रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई ॥ सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्री पति कंठ लगावैं ॥      सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद, सारद सहित अहीसा ॥ जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ त