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विनय-पत्रिका-73 जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जमीनी। पद संख्या- 73| Vinay Patrika-73 |

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जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी। देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी।। भावार्थ :-  अरे मूर्ख जीव! जाग, जाग, ! इस संसाररूपी रात्रिको देख ! शरीर और घर -कुटुम्ब के प्रेम को ऐसा क्षणभंगुर समझ जैसे बादलों के बीच की बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है।। सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-सन्ताप रे। बुड्यो मृग-बारि खायो जेवरिको साँप रे।। भावार्थ :- (जागने के समय ही नहीं) तू सोते समय सपनेमें भी संसार के कष्ट ही सह रहा है; अरे ! तू भ्रमसे मृग-तृष्णा के जलमें डूबा जा रहा है और तुझे रस्सीका सर्प डँस रहा है।। कहैं बेद-बुध, तू तो बुझि मनमानहिं रे। दोष-दुख सपने के जागे ही पै जाहिं रे।। भावार्थ :-  वेेद और विद्वान् पुकार-पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मनमें विचार कर समझ ले कि स्वप्नके सारे दुःख और दोष वास्तवमें जागनेपर ही नष्ट होते हैं।। तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे। राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे।। भावार्थ :-  हे तुलसी ! संसारके तीनों ताप अज्ञानरूपी निद्रासे जागने पर ही नष्ट होते हैं और तभी श्रीराम-नाममें  अहैतुकी स्वाभाविक विशुद्ध प्रीति उत्पन्न होती है।। https://amritrahasya.blogspot.com/2