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विनय पत्रिका- 94। काहे ते हरि मोहिं बिसारो।Kahe Te Hari Mohi Bisaro। Vinay Patrika-94।

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     काहे ते हरि मोहिं बिसारो। जानत निज महिमा मेरे अघ , तदपि न नाथ सँभारो।।      भावार्थ :- हे हरे! आपने मुझे क्यों भुला दिया?  हे नाथ ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनों को ही जानते हैं। तो भी मुझे क्यों नहीं संभालते।।      पतित- पुनीत, दीनहित, असरन- सरन कहत श्रुति चारो। हौं नहीं अधम, सभीत, दिन? किधौं बेदन मृषा पुकारो?।।      भावार्थ :-  आप पतितों को पवित्र करने वाले, दिनों के हितकारी और अशरण को शरण देने वाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं। तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ? अथवा क्या वेदों की यह घोषणा ही झूठी है?।।      खग- गनिका- गज- व्याध-पाँति जहँ हौं हूँ बैठरो। अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पतवारो फारो।। भावार्थ :-  (पहले तो) मुझे आपने पक्षी( जटायु गृर्ध) गणिका(जीवन्ती), हाथी और व्याध (वाल्मिकी) की पंक्तिमें बैठा लिया। यानी पापी स्वीकार कर लिया। अब हे कृपानिधान! आप किसकी शर्म करके मेरी पारसी हुई पत्तल फाड़ रहे हैं।।      जो कलिकाल प्रबल अति होतो , तुव निदेसतें न्यारो। तौ हरि रोष भरोस दोष गुन हेति भजते तजि गारो।।      भावार्थ :-  यदि कलिकाल आपसे अधिक बलवान होता और आप