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विनय पत्रिका-109।कस न करहु करुना हरे ! दुखहरन मुरारि !Kas N Karhu Karuna Hare!dukhaharan Murari।Vinay patrika-109।

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  कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!   त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ भावार्थ :-   हे हरे! हे मुरारे! आप दु:खोंके हरण करनेवाले हैं, फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते? आप दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकारके तापोंके और सन्देह, शोक, अज्ञान तथा भयके नाश करनेवाले हैं। (मेरे भी दु:ख, ताप और अज्ञान आदिका नाश कीजिये) ॥  इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन ।  तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ भावार्थ :-  एक तो कलिकालसे उत्पन्न होनेवाले पापोंसे मेरी बुद्धि मन्द पड़ गयी है और मन मलिन हो गया है, तिसपर फिर हे स्वामी! आप भी मेरी सँभाल नहीं करते? तब इस दासका जीवन कैसे निभेगा? ॥  सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन ।   यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन ॥ भावार्थ :-    हे प्रभो! आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं और मैं सब प्रकारसे दीन हूँ। यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नहीं करते , इससे मालूम होता है कि मैं भाग्यहीन ही हूँ॥  भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे ।   दुख - सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ भावार्थ :-   हे रघुनाथजी! मैं अनेक योनियोंमें भटक आया हूँ ;