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विनय पत्रिका-111।केसव! कहि न जाइ का कहिये।Vinay patrika-111-Keshav! Kahi N Jai Ka Kahiye-

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केसव ! कहि न जाइ का कहिये ।   देखत तव रचना बिचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ भावार्थ :- हे केशव! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता । हे हरे! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन ही मन (आपकी लीला) समझकर रह जाता हूँ॥  सून्य भीति पर चित्र , रंग नहि , तनु बिनु लिखा चितेरे ।   धोये मिटइ न मरइ भीति , दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ भावार्थ :-   कैसी अद्भुत लीला है कि इस (संसाररूपी) चित्रको निराकार (अव्यक्त) चित्रकार (सृष्टिकर्ता परमात्मा) ने शून्य (मायाकी) दीवारपर बिना ही रंगके (संकल्पसे ही) बना दिया। (साधारण स्थूल-चित्र तो धोनेसे मिट जाते हैं, परन्तु) यह (महामायावी-रचित माया-चित्र) किसी प्रकार धोनेसे नहीं मिटता। ( साधारण चित्र जड है, उसे मृत्युका डर नहीं लगता परन्तु) इसको मरणका भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है परन्तु) इस संसाररूपी भयानक चित्रकी ओर देखनेसे दुःख होता है॥ रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं ।   बदन - हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ भावार्थ :-  सूर्यकी किरणोंमें (भ्रमसे) जो जल दिखायी देता है उस जलमें एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुँह नहीं