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विनय पत्रिका-115 माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै Madhav! Moh-Phans Kyon Tutai- Vinay patrika-115।

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माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै ।      बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥        भावार्थ - हे माधव ! मेरी यह मोहकी फाँसी कैसे टूटेगी? बाहरसे चाहे करोड़ों साधन क्यों न किये जायँ, उनसे भीतरकी (अज्ञानकी) गाँठ नहीं छूट सकती ॥ १ ॥ घृतपूरन कराह  अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै ।      ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥२॥      भावार्थ -  घीसे भरे हुए कड़ाहमें जो चन्द्रमाकी परछाईं दिखायी देती है, वह (जबतक घी रहेगा तबतक) सौ कल्पतक ईंधन और आग लगाकर औटानेसे भी नष्ट नहीं हो सकती। (इसी प्रकार जबतक मोह रहेगा तबतक यह आवागमनकी फाँसी भी रहेगी) ॥ २ ॥  तरु- कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरे न जैसे।      साधन करिय बिचार हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥      भावार्थ -  जैसे किसी पेड़के कोटरमें कोई पक्षी रहता हो, वह उस पेड़के काट डालनेसे नहीं मर सकता, उसी प्रकार बाहरसे कितने ही साधन क्यों न किये जायँ, पर बिना विवेकके यह मन कभी शुद्ध होकर एकाग्र नहीं हो सकता ॥ ३ ॥  अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।      मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥      भावार्थ -  जैसे साँपके बिल

विनय पत्रिका-110 कहु केहि कहिय कृपानिध Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiye Kripanidhe -

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कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।       इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥         भावार्थ — हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥ १ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।       हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥       भावार्थ—  तो सदा सुख-सम्पत्ति और स्वर्ग-नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥ २ ॥  मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।      जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥       भावार्थ—  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दुःखी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दुःख नहीं होगा ? ॥ ३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।       तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥      भावार्थ—  अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ; परन्तु हे मुरारे! आप तो (अपराधका विचार न करक