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विनय पत्रिका-125मैं केहि कहाँ बिपति अति भारीVinay patrika-125-Mai Kehi Kaha Bipati Ati

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मैं केहि कहाँ बिपति अति भारी।       श्रीरघुवीर धीर हितकारी ॥ १ ॥         भावार्थ :- हे रघुनाथजी! हे धैर्यवान्! (बिना ही उकतायें) हित करनेवाले मैं तुम्हें छोड़कर, अपना दारुण विपत्ति और किसे सुनाऊँ ? ॥१॥ मम हृदय भवन प्रभु तोरा।       तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥      भावार्थ :- हे नाथ! मेरा हृदय है तो तुम्हारा निवास स्थान, परन्तु आजकल उसमें बस गये हैं आकर बहुत-से चोर! तुम्हारे मन्दिरमें चोरोंने घर कर लिया है॥ २॥   अति कठिन करहिं बरजोरा।       मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३॥        भावार्थ :- (मैं उन्हें निकालना चाहता हूँ, परन्तु वे लोग बड़े ही कठोरहृदय हैं) सदा जबरदस्ती ही करते रहते हैं। मेरी विनती-निहोरा कुछ भी नहीं मानते ॥ ३॥  तम, मोह, लोभ, अहँकारा।       मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥      भावार्थ :- इन चोरोंमें प्रधान सात हैं-अज्ञान, मोह, लोभ, अहंकार, मद, क्रोध और ज्ञानका शत्रु काम ॥ ४॥   अति करहिं उपद्रव नाथा।       मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥       भावार्थ :- हे नाथ! ये सब बड़ा ही उपद्रव कर रहे हैं, मुझे अनाथ जानकर कुचले डालते हैं॥ ५॥ मैं एक, अमित बटपारा।       कोउ सुनै न मोर