समुद्र मंथन की कथा।Samudra Manthan katha।

धर्म ग्रंथों ऐसा कहा गया है की - बड़े लोगों द्वारा जाने-अनजाने में थोड़ी गलती होने पर भी बड़ा भयंकर परिणाम भगतना पड़ता है जैसे इंद्र ने माला का अपमान करके संकट प्राप्त किया।  दुर्वासा के शराप से  इन्द्र श्रीहीन होकर यत्र-तत्र सामान्य मनुष्य की तरह जीवन बिताने लगे। तीनों लोकों पर असुरों का राज्य हो गया। श्रीहीनता की स्थिति में देवता ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने कहा कि आपलोग श्री बैकुंठनाथ भगवान की शरणागति करें, सागर में स्थाई जो भगवान है वही देवताओं की समस्या का निदान कर सकते हैं । तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए।
भगवान विष्णु ने देवतावों को बताया की आदि आप स्वर्ग पर राज्य चाहते हैं तो दैत्यों से संधि कर समुद्र मंथन करिए उसमे से अमृत निकलेगा। जिसे ग्रहण कर अमर हो जाएंगे और अपनी श्रीसंपदा और राज्य प्राप्त कर पाएंगे ।
देवतावों ने भगवान से पूछा - क्या असुर इसके लिए तैयार होंगे ?
भगवान ने बताया की जब लक्ष्य बड़ा हो, समय प्रतिकूल हो या शत्रु बलवान हो तो चाहे घर, पंचायत, जिला, राज्य या देश का राजा (मुखिया) हो उसे साम, दाम, दंड एवं भेद की नीति अपनानी चाहिए। अभी राच्छस बलवान हैं और आपलोग अकेले समुद्र मंथन कर नहीं पाएंगे इसीलिए  देवता असुरों के सामने समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त करने का प्रस्ताव करें और वह(असुर) जो भी शर्त रखे, आपलोग स्वीकार कर ले, विवाद ना करें। देव-दानव के द्वारा सम्मिलित रूप से समुंद्र मंथन करने से अमृत निकलेगा। उस अमृत का पान कर ही देव अपनी श्रीसंपदा और राज्य वापस प्राप्त कर सकते हैं ।
इसकी पुष्टि इस कथा से होती है कि :-
एक मदारी की पेटी में संयोगवश एक सांप तथा एक चूहा बंद थे। सर्प ने अपना काम निकालने के लिए सोचा कि चूहा अगर मदारी की पेटी को काट देगा तो मैं बाहर निकल पाऊंगा और फिर चूहे को खा जाऊंगा। सर्प ने चूहे से कहा कि तुम पेटी काट दो तो हम दोनों पेटी से बाहर निकल जाएंगे। चूहे ने पहले तो उस पर विश्वास नहीं किया किंतु सर्प के बहुत कहने पर उसने पेटी काट दिए। बाहर निकलने सर्प ने चूहे को खा गया और भाग गया।
बार-बार शत्रु के द्वारा हार होने पर शत्रु से मैत्री कर आगे का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। भगवान ने कहा कि समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी एवं वासुकी को रस्सी बनाना होगा। समुद्र मंथन से पहले विश निकलेगा इससे भयभीत नहीं होना है, किसी अच्छे कार्य का प्रारंभ करने से पहले बाधा आती है, ज्ञानी लोग विघ्न बाधा आने पर भी अंतिम फल के लिए लगे रहते हैं, विचलित नहीं होते हैं। इस तरह भगवान ने देवताओं को असुरों से संधि करने की सलाह दी ।
भगवान ऐसा उपाय बताकर अंतर्धान हो गए, इधर इंद्र देवताओं साथ राजा बलि के पास मैत्री प्रस्ताव लेकर पहुंचे तथा विनम्रता से बोले की देव-दानव दोनों मिलकर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया जाए। उससे जो अमृत निकलेगा उसे हमसभी देव-दानव पीकर अमर हो जाएंगे। राजा बलि समुद्र मंथन के लिए तैयार हो गए। प्रायः आज भी देखा जाता है कि आसुरी प्रवृत्ति वाले धन, जन, बल में ताकतवर होते हैं लेकिन उन्हे अपनी क्षमता का ज्ञान नहीं होता। देव प्रवृत्ति के लोग अपनी क्षमता को जानते हैं। दोनों पक्ष समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत उखाड़कर समुद तट पर लाएं। 
वासुकिनाग से देवतावों ने विनती की हे नागराज! हम लोगों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने का विचार किया है, इस कार्य में आप मथानी का राशि बनकर हमारी सहायता करें। अमृत प्राप्त होने पर उसमें से कुछ भाग आपको भी दिया जाएगा। वासुकी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और समुद्र तटपर आकर मंदराचल से लिपट गये।
 देव और दानवों द्वारा समुद्र मंथन का कार्य शुरू किया गया लेकिन नीचे आधार नहीं होने के कारण मंदराचल समुंद्र में धसने लगा, बिना आधार के इतना विसाल मंदराचल पर्वत टीके कैसे? आधार ही नहीं होगा तो समुंद्र मंथन कैसे होगा। पर्वत धसने पर सबके मुंह पर उदासी छा गई, भगवान ने इसे विपती मानकर मन में विघ्न विनाशक अपने भगवत स्वरूप का स्मरण कर स्वयं कच्छप रूप धारण किया तथा अपनी पीठ पर मंदराचल को आधार दे दिया। पर्वत को उठा हुआ देख देवता और सुर दोनों प्रसन्न हो गए। इस प्रकार धर्म करने वाले, सादगी एवं सदाचार से रहने वाले को भगवान धन की तिजोरी नहीं देते बल्कि प्रभु कृपा से खेती व्यापार आदि से ही सब कुछ हो जाता है ।
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समुद्र मंथन से 1- कालकूट विष, 2- कामधेनु, 3- उच्चैश्रवा घोड़ा, 4- ऐरावत हाथी, 5- कौस्तुभ मणि, 6- कल्पवृक्ष,  7- रंभा अप्सरा, 8- देवी लक्ष्मी, 9- वारुणी देवी, 10- चंद्रमा 11- पारिजात वृक्ष, 12 पांचजन्य शंख, 13 एवं  14- भगवान धन्वंतरिअमृत कलश ।
     1 कालकूट विष :- समुद्र मंथन में से सबसे पहले कालकूट विष निकला, देव विष से रक्षा करने के लिए श्रीशंकरजी की स्तुति करने लगे आप सभी जीवो पर उपकार करने वाले हैं, आप विष को स्वीकार कर हमारे कष्ट का निवारण करें। भगवान शिव ने विष को ग्रहण कर लिया। अगर हमें जीवन मे अमृत की इच्छा है तो सबसे पहले हमें अपने मन को मथना पड़ेगा। जब हम अपने मन को मथेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर निकलेंगे। यही बुरे विचार विष है। हमें इन बुरे विचारों को परमात्मा को समर्पित कर देना चाहिए और इनसे मुक्त हो जाना चाहिए।


      2 कामधेनु :- समुद्र मंथन के दौरान कामधेनु गाय निकली। अच्छे कार्य में कष्ट आते ही है लेकिन जो कष्टों को जीवन का हिसा मान, अपने कर्मो मे लगा रहता है उसे ही कामधेनु जैसा फल प्राप्त होता है। कामधेनु प्राप्त होने पर विचार होने लगा कि कामधेनु किसे दिया जाए। असुर धन के लिए यज्ञ करते हैं, देव दुख पड़ने पर। देव-दानव ने हवन आदी की व्यवस्था के लिए कामधेनु को यज्ञीक ब्राह्मणोंं को दे दी।

     3 उच्चैश्रवा घोड़ा :- समुद्र मंथन के दौरान आगे उच्चैश्रवा घोड़ा निकला। इसका रंग सफेद था। इसे देवेन्द्र को दे दिया गया। उच्चैश्रवा घोड़ा मन की गति का प्रतीक है। मन की गति ही सबसे अधिक मानी गई है। यदि हमे अमृत (परमात्मा) चाहिए तो अपने मन की गति पर विराम लगाना होगा। तभी परमात्मा से मिलन संभव है। 
     

    4 ऐरावत हाथी :- समुद्र मंथन में अगले क्रम में  ऐरावत हाथी निकला, उसके चार बड़े-बड़े दांत थे। ऐरावत हाथी को देवराज इंद्र ने रख लिया। ऐरावत हाथी बुद्धि का प्रतीक है और उसके चार दांत लोभ, मोह, वासना और क्रोध का।

      5 कौस्तुभ मणि :- समुद्र मंथन में पांचवे क्रम पर कौस्तुभ मणि निकला, जिसे भगवान विष्णु ने अपने ह्रदय पर धारण कर लिया। कौस्तुभ मणि भक्ति का प्रतीक है। जब आपके मन से सारे विकार निकल जाएंगे, तब भक्ति ही शेष रह जाएगी। यही भक्ति ही भगवान ग्रहण करेंगे। 
    

      6 कल्पवृक्ष :- समुद्र मंथन में छठे क्रम में कल्पवृक्ष निकला, कल्पवृक्ष को देवलोक में स्थान दे दिया गया।


  7 रंभा अप्सरा :- समुद्र मंथन में सातवे क्रम में रम्भा एवं उसकी सेवा करनेवाली अनेक अप्सरायें निकली, जिनको स्वर्ग में स्थान दिया गया। वह सुंदर वस्त्र व आभूषण पहने हुई थीं। उसकी चाल मन को लुभाने वाली थी।अप्सरा मन में छिपी वासना (चंचलता) का प्रतीक है। जब हम किसी विशेष उद्देश्य में लगे होते हैं तब वासना हमारे मन को विचलित करने का प्रयास करती हैं। उस स्थिति में मन पर नियंत्रण होना बहुत जरूरी है।
    
      8 देवी लक्ष्मी :- समुद्र मंथन में आठवे स्थान पर लक्ष्मी देवी निकलीं। देवअसुर,  ऋषि-मुनि आदि सभी चाहते थे कि लक्ष्मी उन्हें मिल जाएं निर्णय यह हुआ की महालक्ष्मी के ऊपर ही छोड़ दिया जाय, लक्ष्मी जिसको वरण(स्वीकार) करेंगी सभी को मंजूर होगा। फिर स्वयंवर की व्यवस्था की गयी। देव, असुर, शिव, ब्रह्मा आदि सभी स्वयंवर में आसनस्थ हो गये।
  श्रीलक्ष्मीजी हाथ में जयमाल लिए सखियों के साथ वर-वरण के लिए घूम रही थीं। उस सभा में जिस पर लक्ष्मी की दृष्टि पड़ जाती, वह विमुग्ध हो जाता था। महालक्ष्मी सुर-असुर, शंकर, ब्रह्मा, सनकादि ऋषियों आदि सभी लोगों को  देखते-देखते विष्णु भगवान् को ही जयमाल डालकर वरण किया ।
शुकदेवजी परीक्षित् से कहते है कि - हे परीक्षित! उस स्वयंवर के समय दुर्वासा ऋषि भी वहाँ थे। उनके समान तपस्वी कोई नहीं था, लेकिन वे महाक्रोधी थे। अतः श्रीलक्ष्मी ने इन्हें स्वीकार नहीं किया ।
        देवताओं के गुरू बृहस्पति तथा असुरों के गुरू शुक्राचार्य विद्या में निपुण हैं लेकिन ये लोग अपने शिष्यों के लिए गलत कार्य भी करते हैं, इसलिए उन्हें लक्ष्मी ने स्वीकार नहीं किया ।
 ब्रहमा एवं चन्द्रमा दोनों आनन्द देनेवाले है। लेकिन ब्रहमा अपनी पुत्री सरस्वती पर आसक्त हो गये थे और  चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा पर आसक्त हो गए थे, जिससे बुध पैदा हुये थे। ये दोनों कामान्ध हो जाते है। इन्हें भी श्रीलक्ष्मी जी ने स्वीकार नहीं किया ।
इन्द्र अच्छे है। लेकिन विपत्ति में घबरा जाते हैं एवं दूसरों का सहारा लेते हैं तथा आचरण के कमजोर है। लक्ष्मी ने इन्हें भी रखीकार नहीं किया।
प्रशुराम धर्म जानते है, लेकिन वे प्राणियों का संहार करते थे। उन्होंने इक्कीस बार हैहयवंशीय क्षत्रियों को मार डाला था तथा माँ की भी हत्या कर दी थी। अतः इन्हें भी लक्ष्मी में वरण नहीं किया ।
शिव त्यागी तो है, लेकिन उनके वेश एवं निवास अमंगल है और ये मुक्ति के कारण नहीं है। इसलिए लक्ष्मी ने उन्हें भी वरण नहीं किया।
हिरण्यकशिपु शीलवान एवं वलवान तो था, लेकिन वह कब मारा जायगा, इसका कोई पता नहीं था। इसलिए लक्ष्मी ने उसका वरण नहीं किया। अन्य असुरों में भी महालक्ष्मी में कुछ न कुछ दोष देखा और उनमें से किसी को भी वरण नहीं किया । 
महालक्ष्मी ने सबको परखकर सगुण सम्पन भगवान् विष्णु को ही वरण किया। चारों तरफ जय-जयकार होने लगी। देवता पुनः शक्ति-सम्पन्न हो गये। असुर भीतर ही भीतर अशान्त होने लगे। उनकी शक्ति क्षीण होने लगी ।

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     9 वारुणी देवी :- इसके बाद पुनः समुद्र-मंथन शुरू हुआ। समुद्र मंथन से वारुणी देवी निकली, भगवान की अनुमति से इसे दैत्यों को दे दिया गया। वारुणी का अर्थ है मदिरा यानी नशा। नशा कैसा भी हो शरीर और समाज के लिए बुरा ही होता है। परमात्मा को पाना है तो सबसे पहले नशा छोड़ना होगा तभी परमात्मा से साक्षात्कार संभव है। 

     10 चंद्रमा :- समुद्र मंथन में दसवें क्रम में चंद्रमा निकले। चंद्रमा  शीतलता  के प्रतीक है, ब्रह्मा ने कहा कि चंद्रमा को एक देव बना दिया जाए इसे किसी को नहीं दिया जाएगा। चंद्रमा देव को भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। जब आपका मन बुरे विचार, लालच, वासना, नशा आदि से मुक्त हो जाएगा, उस समय वह चंद्रमा की तरह शीतल हो जाएगा। अमृत (परमात्मा) को पाने के लिए ऐसा ही मन चाहिए। 
    
      11 पारिजात वृक्ष :- इसके बाद समुद्र मंथन से पारिजात वृक्ष निकला। जिसे भगवान ने स्वीकार कर लिया 


     12 पांचजन्य शंख :- समुद्र मंथन से बारहवें क्रम में पांचजन्य शंख निकला। इसे भगवान विष्णु ने ले लिया। 

    
13 एवं  14 भगवान धन्वंतरिअमृत कलश :- समुद्र मंथन से सबसे अंत में भगवान धन्वंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर निकले। भगवान धन्वंतरि निरोगी तन व निर्मल मन के प्रतीक हैं। जब आपका तन निरोगी और मन निर्मल होगा तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी। अमृत प्रकट होते ही असुरों ने झपटकर धन्वन्तरि से अमृत कलश छीन लिया। अमृत कलश के लिए असुरों में कलह शुरू हो गया। असुर अमृत कलश से अमृत पहले पीने के लिए आपस में ही झगड़ने लगे।
अन्य शास्त्र में आया है कि देव-राक्षस के अमृत कलश के झगड़े में वह अमृत कलश  नासिकउज्जैनप्रयाग एवं हरिद्वार स्थानों पर रखा गया। आज भी इन स्थानों पर कुंभ लगते हैं। इधर देवताओं के पास अमृत घट लेने की क्षमता नहीं थी। देवतागण दुःखी हो गये।
बलवान असुर अमृत पहले पीने के लिए कमजोर असुरों को डाँटने लगे। भगवान् ने सोचा कि यदि अभी अमृत कलश ले लेंगे तो असुर एक हो जायेंगे। भगवान् ने मोहिनी युवती का रूप बनाया। मोहिनी रूप में भगवान को छमकते चलते देख असुरों का कलह समाप्त हो गया। सभी मोहिनी रूप वाली युवती को ही देखने लगे। सभी उसी को प्राप्त करने का प्रयास करने लगे। अमृत कलश का झगड़ा ठंडा पड़ गया। असुरों में यही कमी है। असुर प्रत्यक्ष लाभ को छोड़ दूसरे लोभ में फंस  जाते हैं।
असुरों में मोहिनी युवती को पाने के लिए होड़ होने लगी। मोहिनी युवती बारी-बारी से सभी असुरों की ओर देखती। असुर काम के वशीभूत होकर मोहिनी को अपना बनाने की युक्ति में अमृत कलश उसे देने को तैयार हो गये। असुरों ने मोहिनी को अमृत बॉटने का भार सौंप दिया।

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असुरों ने मोहिनी से कहा की - क्या ब्रह्मा ने हमारे मन एवं इन्द्रियों को सुख पाहुचने के लिए तुम्हारी रचना कर हमलोगों के पास भेजा है? हम असुर कश्यप ऋषि की संतान है। असुरों ने मोहिनी युवती से कहा कि तुम्हारे बँटवारे से हमारा विवाद समाप्त हो जायेगा।

मोहिनी ने कहा कि - आप लोग तो उत्तम कुल की संतान है। हमारी जैसी चंचला स्त्री पर विश्वास नहीं करना चाहिए। नारी पर आपलोगों का विश्वास करना उचित नहीं है। मेरे साथ आपकी मैत्री अच्छी नहीं होगी।

शुकदेवजी राजा परीक्षित् से कहते हैं कि - मोहिनी के इस प्रकार कपटपूर्ण वचनों को सुनकर असुरों का उसपर और विश्वास हो गया। कामान्ध असुरों ने अमृत कलश को मोहिनी के हाथों में सुपुर्द कर दिया।

मोहिनी ने कहा कि - मैं अमृत बाट  देती हूँ परंतु मेरी जिस तरह इच्छा होगी, उसी तरह अमृत बाँटूगी। आपलोग विवाद नहीं करेंगे। यदि शर्त स्वीकार हो तो बाँदूगी। अन्यथा अमृत कलश आप ले लें ।
असुरों ने मोहिनी की शर्तों को स्वीकार कर लिया । मोहिनी ने देवताओं तथा असुरों को स्नान कर अलग-अलग पंक्ति में बैठने को कहा। देवता आदि स्नान करके, बढ़िया वस्त्र पहनकर सागर के तट पर कुशासन पर अलग-अलग पंक्ति में बैठे।
मोहिनी ने अमृत कलश से दो चार बूंद धरती पर टपकाने का नाटक किया ताकि असुर भ्रमित हो जायें कि ऊपर का अमृत पतला है तथा नीचे का भाग गाढ़ा होगा, जिसे असुरों को दिया जायेगा। वह पतला अमृत पहले देवताओं को ही पिला दिया जाय फिर गाढ़ा एवं अच्छा अमृत असुरों को दिया जाएगा।
मोहिनी ने पहले देवताओं को सारा अमृत पिला दिया। मोहिनी द्वारा देवताओं को अमृत पिलाते समय असुरों को संदेह हुआ, लेकिन असुरों ने सोचा कि अमृत बँट भी जाय तो कोई बात नहीं परंतु स्त्री से विवाद करना उचित नहीं। अतः असुर कुछ बोल नहीं सके।
मोहिनी द्वारा केवल देवताओं को अमृत बाँटते देख, राहु ने सोचा कि अब अमृत मिलने वाला नहीं है। अतः राहु अमृत पान के लिए सूर्य एवं चन्द्रमा के बीच में जाकर बैठ गया। मोहिनी ने राहु को भी अमृत दे दिया । उस समय सूर्य और चन्दमा ने भगवान से उसकी पोल खोल दी। राहु ने अभी अमृत को मुंह में ही लिया था, उसे गर्दन से नीचे नहीं उतारा था कि भगवान् ने चक्र से राहु का सिर अलग कर दिया। राहु के सिर और धड़ दोनों अलग हो गये। अमृत पीने के चलते सिर और घड़ विनष्ट नहीं हुए।
ब्रह्मा ने राहु के सिर एवं धड़ को अपने ग्रहों में रख लिया। वहीं राहु की सिर राहु ग्रह तथा धड़ केतु ग्रह के नाम से जाना जाता है। इस तरह मोहिनी रूप धारण कर भगवान् सारा अमृत देवों को पिलाकर असली स्वरूप में आ गये ।
प्रायः दुराचारी लोग मांस, मदिरा, वेश्या, कचहरी का सेवन कर अपना नाश कर लेते हैं। सदाचारी भगवत् शरण में रहने के कारण अमरत्व को प्राप्त करता है। वही आज भी राहु सूर्य चन्द्र से बदला लेने के लिए उनपर छाया डालकर ग्रहण लगाते हैं। परन्तु इन्द्र के प्रभाव से राहु बाद में हट जाते हैं और पूर्णतः सूर्य या चन्द्रमा को ग्रसित नहीं कर पाते हैं। अतः प्रभु कृपा में रहने पर राहु-केतु का प्रभाव आम भक्त को भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि भगवान उसकी रक्षा करते हैं। इधर फिर आगे प्रभु द्वारा देवताओं को अमृत पीला देने को देखकर असुरों ने कहा कि अमृत पान से नहीं होगा। देवासुर संग्राम होगा क्योंकि विष्णु ने मोहिनी रूप बनाकर धोखा दी है।
यह सुनते ही भगवान् अपने गरूड़ पर सवार होकर चल दिये। भगवान् के वैकुण्ठलोक जाने पर, असुरों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवासुर संग्राम शुरू हो गया। समुद्र तट पर भीषण युद्ध छिड़ गया और अनेकों देव-असुर धाराशाही हुए परंतु अमृत पीने के कारण देवता पुनः नवजीवन को प्राप्त कर लेते थे।
इसप्रकार यह दवासुर संग्राम में महाप्रलय की जैसा स्थिती देखकर ब्रह्माजी ने आकर युद्ध को बंद कराया। उससमय असुरो के पुरोहित शुक्राचार्य ने अपनी संजिवनी विद्या से सभी असुरो पुनः जीवित कर दिया।

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श्री सीता राम !


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