गरुड़जी एवं काकभुशुण्डि संवाद Garud - Kakbhushundi Samvad
गरुड़जी ने पूछा :-
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ।
जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी।
सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥
भावार्थ :- पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित
बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर
मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा।
सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी।
सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥
भावार्थ :- हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह
बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख
कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए॥
काकभुशुण्डिजी का उत्तर :-
नर तन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी।
ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥
भावार्थ :- मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर
नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और
मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला
है॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर।
होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं।
कर ते डारि परस मनि देहीं॥
भावार्थ :- ऐसे मनुष्य शरीर को धारण
(प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में
अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच
के टुकड़े ले लेते हैं॥
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया॥
भावार्थ :- जगत् में दरिद्रता के समान दुःख
नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर
से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है॥
गरुड़जी ने पूछा :-
संत असंत मरम तुम्ह जानहु।
तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला।
कहहु कवन अघ परम कराला॥
भावार्थ :- संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते
हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में
प्रसिद्ध सबसे महान् पुण्य कौन सा है और सबसे महान् भयंकर पाप कौन है॥
काकभुशुण्डिजी का उत्तर :-
संत सहहिं दुख पर हित लागी।
पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला।
पर हित निति सह बिपति बिसाला॥
भावार्थ :- संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख
सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष
के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते
हैं)॥
सन इव खल पर बंधन करई।
खाल कढ़ाई बिपति सहि मरई॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।
अहि मूषक इव सुनु उरगारी॥
भावार्थ :- किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति
दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर
मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप
और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू॥
भावार्थ :- वे पराई संपत्ति का नाश करके
स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का
अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही
होता है॥
संत उदय संतत सुखकारी।
बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा।
पर निंदा सम अघ न गरीसा॥
भावार्थ :- और संतों का अभ्युदय सदा ही
सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक
है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है॥
हर गुर निंदक दादुर होई।
जन्म सहस्र पाव तन सोई॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि।
जग जनमइ बायस सरीर धरि॥
भावार्थ :- शंकरजी और गुरु की निंदा करने
वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर
पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत् में
कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी।
रौरव नरक परहिं ते प्रानी॥
होहिं उलूक संत निंदा रत।
मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत॥
भावार्थ :- जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों
की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए
लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी
सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥
ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥
भावार्थ :- जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं।
गरुड़जी ने पूछा :-
मानस रोग कहहु समुझाई।
तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
भावार्थ:- फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं
और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है।
काकभुशुण्डिजी का उत्तर :-सुनहु तात अब मानस रोगा।
जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥
भावार्थ :- हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा॥
भावार्थ :- सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान)
है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार
(बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई।
उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना॥
भावार्थ :- यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ)
प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से
प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन
जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)॥
ममता दादु कंडु इरषाई।
हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥
भावार्थ :- ममता दाद है, ईर्षा (डाह)
खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है
(गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को
देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥
दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी।
त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥
भावार्थ :- अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला
डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ,
कपट, मद और मान
नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार
(पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका।
कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥
भावार्थ :- मत्सर और अविवेक दो प्रकार के
ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥
भावार्थ :- एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर
जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर
कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥
भावार्थ :- नियम, धर्म, आचार (उत्तम
आचरण), तप,
ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी
करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी।
सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए।
हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥
भावार्थ :- इस प्रकार जगत् में समस्त जीव
रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और
वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं।
ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी।
नास न पावहिं जन परितापी॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे।
मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥
भावार्थ :- प्राणियों को जलाने वाले ये पापी
(रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते।
विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे
साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा।
जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा।
संजम यह न बिषय कै आसा॥
भावार्थ :- यदि श्री रामजी की कृपा से इस
प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में
विश्वास हो। विषयों की आशा न करे,
यही संयम (परहेज) हो॥
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सिया वर रामचंद्र जी जय
जवाब देंहटाएंकृष्ण गोविंद गोविंद
जवाब देंहटाएंगोपाल हरि
जय जय गोविंद गोविंद गोपाल हरि
मेरो गोविंद गोविंद गोपाल हरि
Bhai bahoot accha
जवाब देंहटाएंJay Siyaram
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