विनय पत्रिका 252| तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । Pad No-252 Vinay patrika| पद संख्या 252 ,

   
 

तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई ।
मौसम कुटिल- मौलिमनि नहिं जग, तुमसम हरि! न हरन कुटिलाई ।।
        भावार्थ - हे  महाराज रामचन्द्रजी! आपके समान तो कोई दिनोंका कल्याण करनेवाला बंधू नहीं है और मेरे समान कोई दिन नहीं है! मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं है ||

हौं मन- बचन- कर्म पटक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।
हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ- हित, चित यही सुरति कबहुँ नहिं जाई।।
        भावार्थ - मैं मनसे, वचनसे और कर्म से पापोंमें रत हूँ और हे कृपालो! आप पापियोंको परमगति देनेवाले हैं | मैं अनाथ हूँ और हे प्रभु  आप अनाथों का हिट करनेवाले हैं | यह बात मेरे मन से कभी नहीं जाती ||

हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।
हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई।।
        भावार्थ - मैं दुःखी हूँ, आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं| आपका यश यह वेद-पुराण गा रहे हैं| मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं| (आपके और मेरे इतने संबन्ध होनेपर भी) क्या कारण है, कि आप मुझपर कृपा नहीं करते ?||

तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई
        भावार्थ - हे श्रीरामजी! आप आनंदके धाम तथा श्रमके नाश करनेवाले हैं और मैं संसार के तीनों (दैहिक, दैविक और भौतिक) श्रमोंसे अत्यंत ही दुःखी हो रहा हूँ| इन बातों को अपने मनमें विचारकर तथा अपनी प्रभूताको समझकर तुलसीदास को अपनी सारणमें रख  लीजिये ||
श्री सीता राम !!

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