विनय पत्रिका-108।बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।Bir Maha Avaradhiye,Sadhe Sidhi Hoy।Vinay patrika-108।

 

बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय ।
  सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ॥
भावार्थ :- महान् वीर श्रीरघुनाथजीकी आराधना करनी चाहिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है। वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब जानते हैं ॥

 बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस ।
  बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥
भावार्थ :- इस कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है। (सद्गुरुसे) उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र ( राम ) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं ॥
 
 प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।
  संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥
भावार्थ :- (मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है) प्रेमरूपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरूपी समिधका क्षमारूपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये 

 अघ - उचाटि,  मन बस करै, मारै मद मार ।
  आकरषै सुख - संपदा - संतोष - बिचार ॥
भावार्थ :- पापोंका उच्चाटन , मनका वशीकरण , अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरूपी सुख - सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये ।

 जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि ।
  तुलसिदास प्रभुपथ चढ्यौ, जौ लेहु निबाहि ॥
भावार्थ :- जिसने इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं। तुलसीदास भी इसी मार्गपर चढ़ा है, जिसे प्रभु निबाह लेंगे ॥

 यह भी पढ़े श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित विनय पत्रिका पद- 107, है नीको मेरो देवता कोसलपति राम
लिंक- https://amritrahasya.blogspot.com/2021/06/107-hai-niko-mero-devta-kosalpativinay.html

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