विनय पत्रिका-114।माधव! मो समान जग माहीं-Madhav! Mo Saman Jag Mahin-Vinay patrika-114।

माधव! मो समान जग माहीं । 
    सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन - बिषय कोउ नाहीं ॥१ ॥
    भावार्थ :- हे माधव! संसारमें मेरे समान, सब प्रकारसे साधनहीन, पापी, अति दीन और विषय-भोगोंमें डूबा हुआ दूसरा कोई नहीं है ॥

 तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत - हित ईस न त्यागी ।
     मैं दुख - सोक - बिकल कृपालु ! केहि कारन दया न लागी ॥
    भावार्थ :- और तुम्हारे समान, बिना ही कारण कृपा करनेवाला, दीन-दुःखियोंके हितार्थ सब कुछ त्याग करनेवाला स्वामी कोई दूसरा नहीं है। भाव यह है कि दीनोंके दुःख दूर करनेके लिये ही तुम वैकुण्ठ या सच्चिदानन्दघनरूप छोड़कर धराधाममें मानवरूपमें अवतीर्ण होते हो, इससे अधिक त्याग और क्या होगा? इतनेपर भी मैं दु:ख और शोकसे व्याकुल हो रहा हूँ। हे कृपालो! किस कारण तुमको मुझपर दया नहीं आती? ॥

 नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
     ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥
    भावार्थ :- मैं यह मानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, सब मेरा ही अपराध है। क्योंकि तुमने मुझे जो ज्ञानका भण्डार यह मनुष्य-शरीर दिया, उसे पाकर भी मैंने तुम सरीखे प्रभुको आजतक नहीं पहचाना ॥

 बेनु करील , श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै । 
    सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥
    भावार्थ :- बाँस चन्दनको और करील वसन्तको वृथा ही दोष देते हैं। असलमें दोनों हतभाग्य हैं। बाँसमें सार ही नहीं है, तब बेचारा चन्दन उसमें सुगन्ध कहाँसे भर दे? इसी प्रकार करीलमें पत्ते नहीं होते फिर वसन्त उसे कैसे हरा-भरा कर देगा? (वैसे ही मैं विवेकहीन और भक्तिशून्य कैसे तुमपर दोष लगा सकता हूँ?)॥

 सब प्रकार मैं कठिन, मृदुल हरि, दृढ़ बिचार जिय मोरे ।
     तुलसिदास प्रभु मोह-संखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥
    भावार्थ :- हे हरे! मैं सब प्रकार कठोर हूँ, पर तुम तो कोमल स्वभाववाले हो; मैंने अपने मनमें यह  निष्चयरूपसे विचार कर लिया है कि हे प्रभो! इस तुलसीदासकी मोहरूपी बेड़ी तुम्हारे ही छुड़ानेसे छूट सकेगी, अन्यथा नहीं।।


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