विनय पत्रिका-120हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी He Hari! Kas N Harhu Bhram Bhari- Vinay patrika-120

हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी । 
        जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥ 
        भावार्थ – हे हरे! मेरे इस (संसारको सत्य और सुखरूप आदि माननेके) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत् है, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य-सा ही भासता है ॥ १ ॥
 
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।
        बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीरकी नाईं ॥ २ ॥ 
      भावार्थ – मैं यह जानता हूँ कि (शरीर-धन-पुत्रादि) विषय यथार्थमें नहीं है, किन्तु हे स्वामी! इतनेपर भी इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता। मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही हठ (मोह) से तोतेकी तरह परवश बँधा पड़ा हूँ (स्वयं अपने ही अज्ञानसे बँध-सा गया हूँ) ॥ २ ॥

सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई। 
        बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥
       भावार्थ – जैसे किसीको स्वप्न में अनेक प्रकारके रोग हो जायँ जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैद्य अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीड़ा नहीं मिटती (इसी प्रकार मायाके भ्रममें पड़कर लोग बिना ही हुए संसारकी अनेक पीड़ा भोग रहे हैं और उन्हें दूर करनेके लिये मिथ्या उपाय कर रहे हैं, पर तत्त्वज्ञान के बिना कभी इन पीड़ाओंसे छुटकारा नहीं मिल सकता) ॥ ३ ॥ 
 
 श्रुति - गुरु- साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी। 
        तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥ ४ ॥ 
      भावार्थ – वेद, गुरु, संत और स्मृतियाँ- सभी एक स्वरसे कहते हैं कि यह दृश्यमान जगत् असत् है (और काल्पनिक सत्ता मान लेनेपर) दुःखरूप है। जबतक इसे त्यागकर श्रीरघुनाथजीका भजन नहीं किया जाता तबतक ऐसी किसकी शक्ति है जो इस विपत्तिका नाश कर सके ? ॥ ४ ॥

बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै।
       तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५ ॥ 
     भावार्थ – वेद निर्मल वाणीसे संसारसागरसे पार होनेके अनेक उपाय बतला र हैं, किन्तु हे तुलसीदास! जबतक 'मैं' और 'मेरा' दूर नहीं हो जाता-अहंता-ममता नहीं मिट जाती, तबतक जीव कभी सुख नहीं पा सकता ॥ ५ ॥

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