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हिंदू नववर्ष संवत 2079 Hindu New Vars 2022 Samvat 2079-2अप्रैल2022

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हिंदू नववर्ष संवत 2079            कालगणना के अनुसार हिंदू वर्ष का चैत्र महीना बहुत ही खास होता है क्योंकि यह माह हिंदू नववर्ष का पहला महीना होता है।            चैत्र माह से हिंदू नववर्ष आरंभ हो जाता है। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि हिंदू नववर्ष का पहला दिन माना जाता है।            चैत्र प्रतिपदा तिथि को गुड़ी पड़वा भी कहते हैं। इसके अलावा इस तिथि पर चैत्र नवरात्रि भी आरंभ हो जाते हैं।               चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को वर्ष प्रतिपदा, उगादि और गुड़ी पड़वा कहा जाता है।            वैसे तो पूरी दुनिया अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार नया साल जनवरी के महीने से शुरू हो जाता है,लेकिन वैदिक हिंदू परंपरा और सनातन काल गणना में चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि पर नववर्ष की शुरुआत होती है।            पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन ब्रह्राजी ने समस्त सृ...

विनय पत्रिका-125मैं केहि कहाँ बिपति अति भारीVinay patrika-125-Mai Kehi Kaha Bipati Ati

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मैं केहि कहाँ बिपति अति भारी।       श्रीरघुवीर धीर हितकारी ॥ १ ॥         भावार्थ :- हे रघुनाथजी! हे धैर्यवान्! (बिना ही उकतायें) हित करनेवाले मैं तुम्हें छोड़कर, अपना दारुण विपत्ति और किसे सुनाऊँ ? ॥१॥ मम हृदय भवन प्रभु तोरा।       तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥      भावार्थ :- हे नाथ! मेरा हृदय है तो तुम्हारा निवास स्थान, परन्तु आजकल उसमें बस गये हैं आकर बहुत-से चोर! तुम्हारे मन्दिरमें चोरोंने घर कर लिया है॥ २॥   अति कठिन करहिं बरजोरा।       मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३॥        भावार्थ :- (मैं उन्हें निकालना चाहता हूँ, परन्तु वे लोग बड़े ही कठोरहृदय हैं) सदा जबरदस्ती ही करते रहते हैं। मेरी विनती-निहोरा कुछ भी नहीं मानते ॥ ३॥  तम, मोह, लोभ, अहँकारा।       मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥      भावार्थ :- इन चोरोंमें प्रधान सात हैं-अज्ञान, मोह, लोभ, अहंकार, मद, क्रोध और ज्ञानका शत्रु काम ॥ ४॥   अति करहिं उपद्रव नाथा।...

विनय पत्रिका-124-जौ निज मन परिहरै बिकारा-Vinay patrika-124-Jau Nij Man Pariharai Bikara

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जौ निज मन परिहरै बिकारा ।      तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा ॥ १ ॥        भावार्थ :- यदि हमारा मन विकारोंको छोड़ दे, तो फिर द्वैतभावसे उत्पन्न संसारी दुःख, भ्रम और अपार शोक क्यों हो? (यह सब मनके विकारोंके कारण ही तो होते हैं) ॥ १ ॥  सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआई।        त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं ॥ २ ॥        भावार्थ :-  शत्रु, मित्र और उदासीन इन तीनोंकी मनने ही हठसे कल्पना कर रखी है। शत्रुको साँपके समान त्याग देना चाहिये, मित्रको सुवर्णकी तरह ग्रहण करना चाहिये और उदासीनकी तृणकी तरह उपेक्षा कर देनी चाहिये। ये सब मनकी ही कल्पनाएँ हैं ॥ २ ॥   असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे।        सरग, नरक, चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥      भावार्थ :-  जैसे (बहुमूल्य) मणिमें भोजन, वस्त्र, पशु और अनेक प्रकारकी चीजें रहती हैं वैसे ही स्वर्ग, नरक, चर, अचर और बहुत से लोक इस मनमें रह...

विनय पत्रिका-123-अस कछु समुझि परत रघुराया-As Kchhu Samujhi parat Raghuraya-Vinay patrika-123

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अस कछु समुझि परत रघुराया !      बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥        भावार्थ :- हे रघुनाथजी! मुझे कुछ ऐसा समझ पड़ता है कि हे दयालु! हे सेवक-हितकारी! तुम्हारी कृपाके बिना न तो मोह ही दूर हो सकता है और न माया ही छूटती है।।  बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।        निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई ॥ २ ॥          भावार्थ :- जैसे रातके समय घरमें केवल दीपककी बातें करनेसे अँधेरा दूर नहीं होता, वैसे ही कोई वाचक ज्ञान में कितना ही निपुण क्यों न हो, संसार-सागरको पार नहीं कर सकता ॥ २ ॥  जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।       चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥         भावार्थ :- जैसे कोई एक दीन, दुःखिया, भोजनके अभावमें भूखके मारे दुःख पा रहा हो और कोई उसके घरमें कल्पवृक्ष तथा कामधेनुके चित्र लिख-लिखकर उसकी विपत्ति दूर करना चाहे तो कभी दूर नहीं हो सकती। वैसे ही केवल शास्त्रोंक...