विनय पत्रिका-123-अस कछु समुझि परत रघुराया-As Kchhu Samujhi parat Raghuraya-Vinay patrika-123


अस कछु समुझि परत रघुराया !

    बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥

     भावार्थ :- हे रघुनाथजी! मुझे कुछ ऐसा समझ पड़ता है कि हे दयालु! हे सेवक-हितकारी! तुम्हारी कृपाके बिना न तो मोह ही दूर हो सकता है और न माया ही छूटती है।।

 बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।

     निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई ॥ २ ॥

      भावार्थ :- जैसे रातके समय घरमें केवल दीपककी बातें करनेसे अँधेरा दूर नहीं होता, वैसे ही कोई वाचक ज्ञान में कितना ही निपुण क्यों न हो, संसार-सागरको पार नहीं कर सकता ॥ २ ॥

 जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।

     चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥

      भावार्थ :- जैसे कोई एक दीन, दुःखिया, भोजनके अभावमें भूखके मारे दुःख पा रहा हो और कोई उसके घरमें कल्पवृक्ष तथा कामधेनुके चित्र लिख-लिखकर उसकी विपत्ति दूर करना चाहे तो कभी दूर नहीं हो सकती। वैसे ही केवल शास्त्रोंकी बातोंसे ही मोह नहीं मिटता ॥ ३ ॥

 षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।

     बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४ ॥

       भावार्थ :- कोई मनुष्य रात-दिन अनेक प्रकारके षट्-रस भोजनोंपर व्याख्यान देता रहे; तथापि भोजन करनेपर भूखकी निवृत्ति होनेसे जो सन्तुष्टि होती है उसके सुखको तो वही जानता है जिसने बिना ही कुछ बोले वास्तवमें भोजन कर लिया है। इसी प्रकार कोरी व्याख्यानबाजीसे कुछ नहीं होता, करनेपर कार्य सिद्धि होती है) ॥ ४ ॥

  जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं ।

     तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५

      भावार्थ :- जबतक अपने हृदयमें तत्त्व-ज्ञानका प्रकाश नहीं हुआ और मनमें विषयोंकी आशा बनी हुई है, तबतक हे तुलसीदास! इन जगत्की योनियोंमें भटकना ही पड़ेगा, सुख सपनेमें भी नहीं मिलेगा ॥ ५ ॥

विनय पत्रिका-124- जौ निज मन परिहरै बिकारा 
Vinay patrika-124- Jau Nij Man Pariharai Bikara

टिप्पणियाँ

अमृत रहस्य, अमृत ज्ञान,

हिंदी गिनती 01 To 100 Numbers Hindi and English Counting ginti

गरुड़जी एवं काकभुशुण्डि संवाद Garud - Kakbhushundi Samvad

विनय पत्रिका-102।हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।Vinay patrika-102।Hari! Tum Bahut Anugrah kinho।

समुद्र मंथन की कथा।Samudra Manthan katha।

विनय पत्रिका 252| तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । Pad No-252 Vinay patrika| पद संख्या 252 ,

विनय पत्रिका-114।माधव! मो समान जग माहीं-Madhav! Mo Saman Jag Mahin-Vinay patrika-114।

गोविंद नामावलि Govind Namavli-श्री श्रीनिवासा गोविंदा श्री वेंकटेशा गोविंदा-Shri Shrinivasa Govinda-Shri Venkatesh Govinda

श्री विष्णु आरती। Sri Vishnu Aarti।ॐ जय जगदीश हरे।Om Jai Jagdish Hare।

संकट मोचन हनुमान् स्तोत्रम्-Sankat mochan Strotram-काहे विलम्ब करो अंजनी-सुत-Kahe Vilamb Karo Anjni Sut

शिव आरती।जय शिव ओंकारा।Shiv Arti। Jay Shiv Omkara।