विनय पत्रिका-117 हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै He Hari Kavan Dosh Tohin Vinay patrika-117


हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै । 
    जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥
    भावार्थ - हे हरे! तुम्हें क्या दोष दूँ? (क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १॥

 जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे। 
    तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥
    भावार्थ - जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमें फँसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँमें गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भाँति इन्हींके पीछे भटकता हूँ ॥ २ ॥

 भूत-द्रोह कृत मोह बस्य हित आपन मैं न बिचारो।
     मद-मत्सर- अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥ 
    भावार्थ - अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता। मद, ईर्ष्या, अहंकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ! (बताइये मुझ सरीखा नीच और कौन होगा?) ॥ ३ 

बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।
     बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥
    भावार्थ - वेदों और पुराणोंमें सुनता हूँ तथा समझता हूँ कि श्रीरामजी ही समस्त संसारमें रम रहे हैं, परन्तु मेरे विवेकहीन पापी मनमें यह बात वैसे ही नहीं समाती, जैसे चन्दनकी सुगन्ध बिना गूदेके साररहित बाँसमें नहीं जाती ॥ ४ ॥

 मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी ।
     तुलसिदास भव-ब्याल - ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी ॥ ५ ॥
    भावार्थ - हे करुणाकी खानि! मैं तो अपार अपराधोंका समुद्र हूँ- तुम अन्तर्यामी सब कुछ जानते हो। अतएव हे गरुड़गामी ! संसाररूपी सर्पसे डँसा हुआ यह तुलसीदास तुम्हारी शरणमें पड़ा है। (इसे बचाओ, यह संसाररूपी साँप तुम्हारे वाहन गरुड़को देखते ही भयसे भाग जायगा, तुम एक बार इधर आओ तो सही) ॥ ५

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