विनय-पत्रिका-118। हे हरि! कवन जतन सुख मानहु। | Vinay Patrika | पद संख्या-118




हे हरि! कवन जतन सुख मानहु।
ज्यों गज- दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु।।
भावार्थ :- हे हरे! मैं किस प्रकार सुख मानूँ? मेरी करनी हाथी के दिखावटी दाँतोंके समान है, यह सब तो तुम भलीभाँति जानते ही हो। भाव यह है कि जैसे हाथी के दाँत दिखाने के और तथा खाने के और होते हैं, उसी प्रकार मैं भी दिखाता कुछ और हूँ और करता कुछ और ही हूँ।।

जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद- सुख पाइय कैसे।।
भावार्थ :- मैं दूसरों से जो कुछ कहता हूँ वैसा ही स्वयं करने में भी लगूँ तो भव-सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेकी भाँति अनायास ही तर जाऊँ। परन्तु करूँ क्या ? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता हूँ कुछ और ही। फिर भला तुम्हारे चरणोंका या परमपदका आनन्द कैसे मिले? ||

देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी।
सबिष उरग- आहार , निठुर अस, यह करनी वह बानी।।
भावार्थ :- मोर देखनेमें तो सुन्दर लगता है और मीठी वाणी से अमृतसे सने हुए-से वचन बोलता है; किन्तु उसका आहार जहरीला साँप है! कैसा निष्ठुर है! करनी यह और कथनी वह! (यही मेरा हाल है)

अखिल- जीव- वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल- अनुरागी।
ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी।।
भावार्थ :- हे रघुवीर! तुमको तो वे ही संत प्यारे हैं, जो समस्त जीवों से प्रेम करते हैं, किसीको भी देखकर तनिक भी नहीं जलते, जो तुम्हारे चरणारविन्दोंके प्रेमी हैं, जो धीर-बुद्धि हैं और जो अपने-परायेका भेद बिलकुल ही छोड़ चुके हैं, अर्थात् सबमें एक तुमको ही देखते हैं (फिर मैं इन गुणों से हीन तुम्हें कैसे प्रिय लगूँ ?) ।।

जद्यपि मम औगुन अपार संसार -जोग्य रघुराया।
तुलसीदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया।।
भावार्थ :- हे रघुनाथजी! यद्यपि मुझमें अनन्त कवगुण हैं और मैं संसारमें ही रहने योग्य हूँ, परन्तु तुम करुनानिधान हो, तनिक अपने गुणों पर विचार करके ही तुलसीदास पर दया करो ! ।।

श्री सीता राम !

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