विनय पत्रिका-85। मन ! माधवको नेकु निहारहि। Vinay patrika,पद 85



मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, 
छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।।
भावार्थ :- हे मन ! माधवकी ओर तनिक तो  देख! अरे दुष्ट! सुन, जैसे कंगाल क्षण-क्षणमें अपना धन संभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजी का समरण किया कर।।

सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदरहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि।।
भावार्थ :- वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सद्गुणोंके स्थान हैं। वे सुंदर और बड़े दानी हैं। संतोको  प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं।।

जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-परही।
तौ जनि तुलसीदास निसि -बासर हरि-पद-कमल बिसरहि।।
भावार्थ :- यदि तू बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और संयमके संसार-सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास! रात-दिनमें श्रीहरिके चरण-कमलोंको कभी मत भूल।।

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श्री सीता राम !

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