विनय पत्रिका-96| जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके|Jau Pai Jiy Dharihau Avgun Jan Ke| Vinay patrika-96|


जौ पै जिय धरिहौ अवगुन  जनके।
    तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अद्य-बनके।।
    भावार्थ :- हे नाथ!  यदि आप इस दासके दोषोंपर ध्यान देंगे, तब तो पुन्यरूपी नखसे पापरूपी बड़े-बड़े वनोंके समूह मुझसे कैसे कटेंगे ? (मेरे जरा-से पुण्यसे भारी-भारी पाप कैसे दूर होंगे?)

कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके।
    हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके।।
    भावार्थ :- मन, वचन और शरीरसे किए हुए मेरे पापोंका वर्णन भी कौन कर सकता है? एक-एक छणके पापोंका हिसाब जोड़नेमें अनेक से शेष, सरस्वती और वेद हार जाएंगे।।

जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके।
    तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके।।
    भावार्थ :- (मेरे पुण्योंके भरोसे तो पापोंसे छूटकर उद्धार होना असंभव है) यदि आपके मनमें अपने नामकी महिमा और पतितोंको पावन करनेवाले अपने गुणोंका स्मरण आ जाए तो आप इस तुलसीदासको यमदूतोंके दांत तोड़कर संसार -सागरसे अवश्य वैसे ही तार देंगे, जैसे अजामिल ब्राह्मणको तार दिया था।।

यह भी पढ़े श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित विनय पत्रिका पद-95,
तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं
लिंक :- https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/95-vinay-patrika.html

विनय पत्रिका पद-98,ऐसी हरि करत दासपर प्रीति
लिंक :- https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/98-vinay-patrika-98.html


श्री सीता राम !
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