विनय पत्रिका-126-मन मेरे, मानहि सिख मेरी-Vinay Patrika-126-Man Mere Manhi Sikh Meri


मन मेरे, मानहि सिख मेरी । 
        जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥
        भावार्थ :—हे मेरे मन! यदि तू अपने हृदयमें भगवान्की शक्ति चाहता है, ते मेरी सीख मान ॥ १ ॥

 उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते । 
        सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥ 
        भावार्थ:- भगवान्ने (गर्भवाससे लेकर अबतक) तेरे ऊपर जो (अपार) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर ॥ २ ॥ 

दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई। 
        सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥ 
        भावार्थ :- सुख-दुःख, मान-अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी ॥ ३ ॥ 

सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही । 
        जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४॥
        भावार्थ :- अरे दुष्ट! इस शरीरको तो कालने ग्रस ही रखा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे ॥ ४॥ 

 तुलसिदास बिनु असि मति आये । 
        मिलहिं न राम कपट लौ लाये ॥ ५॥
        भावार्थ :- तुलसीदास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट-समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं ॥ ५ ॥

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