विनय पत्रिका-210 |औरु कहँ ठौर रघुबंस -मणि! मेरे। Auru Kaha Thaur Raghuvasns Mani ! Vinay patrika| पद संख्या 210
औरु कहँ ठौर रघुबंस-मनि! मेरे।
पतित -पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,
बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि करे।।
भावार्थ :- हे रघुवंशमणि! मेरे लिये (आपके चरणोंको छोड़कर) और कहाँ ठौर है? पापियोंको पवित्र करनेवाले, शरणागतोंका पालन करनेवाले एवं अनाथोंको आश्रय देनेवाले एक आप ही हैं। आपका-सा बाँका बाना किस बानेवालेका है? (किसीका भी नहीं ) ||
समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,
करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।
तदपि ह्वै निडर हैं कहौं करुणा-सिंधु,
क्योंअब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे।।
भावार्थ :- हे रघुनाथजी! मेरे अपराधोंको मनमें समझकर अत्यन्त क्रोध यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे हुए हैं, तथापि मैं तो निर्भय होकर, हे करुणा के समुद्र! यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर (मेरी दिन पुकार सुनकर ) मेरी ओर देखे बिना आपको कैसे रहा जाता है? (करुणा के सागर से दिनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय?)
मुख्य रूचि होत बसिबेकि पुर रावरे,
राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।
अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे।।
भावार्थ:- (यदि आप मेरी मनः कामना पुछते हैं, तो सुनये ) सबसे प्रधान रूचि तो मेरी आपके परमधाम में जाकर निवास करनेकी है ; किन्तु हे नाथ ! उस मेरी रूचिको काम, क्रोध, लोभ और मोह आदिने घेर रखा है ( इनके आक्रमण से वह कामना दब जाती है ) | मोक्ष तो दुर्लभ है , स्वर्ग मिलना भी कठिन है , क्योंकि वह केवल पुण्यों के फल से ही मिलता है ( मैंने कोई उत्तम कर्म तो किए नहीं, फिर स्वर्ग कैसे मिले ?) अब रही यमपुरी (नरक) सो उसके समीप भी आपके नामके बलसे नहीं जा सकता ( राम-नाम लेनेवाले को यमराज अपनी पुरीके निकट ही नहीं आने देते) ||
कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाऊं कोसलनाथ!
दिन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे ।
दास तुलसिंही बास देहु अब करि कृपा,
बसत गज गीध ब्याघादि जेहि खेरे।।
भावार्थ :- (इससे ) अब मुझे कहीं भी रहने के लिए स्थान नहीं रहा, आप ही बताइये कहाँ जाऊँ ? हे कोसलनाथ! मैं निर्धन और दिन हूँ (धनी होता, तो कहीं घर ही बनवा लेता), आश्रय-स्थान के न होने से व्याकुल हो रहा हूँ | इसलिए हे नाथ! इस तुलसीदास को कृपा कर उसी गाँव में रहने की जगह दे दीजिये जिसमें गजेन्द्र, जटायु, व्याध (वाल्मीकि) आदि रहते हैं ||
जय सिया राम | श्री सीता राम !!
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