विनय पत्रिका-92। माधवजू, मोसम मंद न कोऊ। पद संख्या- 92 । Vinay Patrika





माधव जू, मोसम मन्द न कोऊ।
जद्यपि मीन-पतंग हिनमती,
मोहि नहिं पूजैं ओऊ।।
भावार्थ :- हे माधव! मेरे समान मूर्ख कोई भी नहीं है।यद्यपि मछली और पतंग हीन बुद्धि हैं, परन्तु वो भी मेरी बराबरी नहीं कर सकते।।

रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयानयो।।
भावार्थ :- पतंग ने सुंदर रूपके वश हो दीपकको अग्नि नहीं समझा और मछली ने आहारके वश हो लोहेके काँटा नहीं जाना , परंतु मैं तो विषयों को प्रत्यक्ष विपत्तिरूप देखकर भी नहीं छोडता हूँ (अतएव मैं उनसे अधिक मूर्ख हूँ ) 

महामोह-सरिता अपार महँ, सन्तत फिरत बह्यो।
श्रीहरि-चरण -कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यौ।।
भावार्थ :- महमोह रूपी अपार नदी में निरंतर बहता फिरता हूँ | (इससे पार होनेके लिए ) श्री हरि के चरण-कमल रूपी नौकाको तजकर बार-बार फेनोंको (अर्थात क्षडभंगुर भोगों को ) पकड़ता हूँ  ||

अस्थि पुरतन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै |
निज तालुगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ||
    भावार्थ :- जैसे बहुत भूखा कुत्ता पुरानी सुखी हड्डी को मुंहमें भरकर पकड़ता है और अपने तालुमें रगड़ लगनेसे जो खून निकलता है,उसे चाटकर बड़ा संतुष्ट होता है (यह नहीं समझता कि यह रक्त तो मेरे ही शरीरका है | यही हाल मेरा है )

परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित हौं त्रसित भयो अति भारी |
चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति- नाथ बिसारी ||
भावार्थ :- मैं संसाररूपी परम कठिन सर्प के डँसनेसे अत्यंत ही भयभीत हो रहा हूँ, परंतु (मूर्खता यह है कि उससे बचने के लिये) गरुणगामी भगवान के शरणागत न होकर (विषयरुपि)मेढककी शरणसे अभय चाहता हूँ ||

जलचर-बृंद जाल- अंतरगत होत सिमिटी इक पासा |
एकहि एक खात लालच - बस, नहिं देखत निज नासा || 
भावार्थ :- जैसे जलमें रहनेवाले जीवों के समूह सिमट-सिमटकर जालमें इकट्ठे हो जाते हैं और लोभवश एक दुसरेको खाते हैं , अपना भावी नाश नहीं देखते (वैसे ही दशा मेरी है)||

मेरे अद्य सारद अनेक जुग, गगत पार नहिं पावौ |
तुलसीदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै || 
भावार्थ :-  यदि सरस्वती जी अनेक युगोंतक मेरे पापोंको गिनती रहें , तब भी उनका अंत नहीं पा सकतीं | मेरे मनमें तो यही भरोसा है की मेरे नाथ पतित-पावन हैं (मुझ पतितको भी अवश्य अपनवेगे)||

श्री सीता राम !
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