विनय पत्रिका-100।सुनि सीतापति सील सुभाउ।Vinay patrika-100।Suni Sitapati Sil Subhau।

सुनि सीतापति सील सुभाउ ।
     मोद न मन , तन पुलक , नयन जल , सो नर खेहर खाउ ॥ 
    भावार्थ :- श्रीसीतानाथ रामजीका शील-स्वभाव सुनकर जिसके मनमें आनन्द नहीं होता, जिसका शरीर पुलकायमान नहीं होता, जिसके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू नहीं भर आते, वह दुष्ट धूल फांकता फिरे तो भी ठीक है ॥ 

 सिसुपनतें पित, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ ।
     कहत राम बिधु बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥ 
    भावार्थ :- बचपनसे ही पिता, माता, भाई, गुरु, नौकर, मन्त्री, और मित्र यही कहते हैं कि हममें से किसीने स्वप्नमें भी श्रीरामचन्द्रजीके चन्द्र-मुखपर कभी क्रोध नहीं देखा ॥

 खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ ।
     जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥ 
    भावार्थ :- उनके साथ जो उनके तीनों भाई और नगरके दूसरे बालक खेलते थे, उनकी अनीति और हानिको वे सदा देखते रहते थे और अपनी जीतमें भी (उनको प्रसन्न करनेके लिये) हार मान लेते थे तथा उन लोगोंको पुचकार-पुचकारकर प्रेमसे अपना दाँव देते और दूसरोंसे दिलाते थे ॥

 सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ ।
     दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥ 
    भावार्थ :- चरणका स्पर्श होते ही पत्थरकी शिला अहल्या शापके सन्तापसे छूट गयी, उसे सद्गति दे दी; पर इस बातका तो उनके मनमें कुछ भी हर्ष नहीं हुआ, उलटे इस बातका पश्चात्ताप अवश्य हुआ कि ऋषिपत्नीके मेरे चरण क्यों लग गये ? ॥ 

 भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ ।
     छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥
    भावार्थ :- शिवजीका धनुष तोड़कर राजाओंका मान हर लिया, इससे जब परशुरामजीने आकर क्रोध किया, तब उनका अपराध क्षमा करके उलटे श्रीलक्ष्मणजीसे माफी मँगवायी और स्वयं उनके चरणोंपर गिर पड़े, इतनी सहिष्णुता और कहीं नहीं है ! ॥

 कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ ।
     ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥ 
    भावार्थ :- राजा दशरथने राज्य देनेको कहकर , कैकेयीके वशमें होनेके कारण, वनवास दे दिया और इसी ग्लानिके मारे वे मर भी गये। ऐसी बुरी माता कैकेयीका मन भी आप ऐसे सँभाले रहे, जैसे कोई अपने शरीरके मर्मस्थानके घावको देखता रहता है, अर्थात् आप सदा उसके मनके अनुसार ही चलते रहे ॥

 कपि-सेवा बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ ।
     देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूं पत्र लिखाउ ॥
    भावार्थ :- जब आप हनुमान्जीकी सेवाके वश होकर उनके उपकृत हो गये, तब उनसे कहा कि 'हे पवनसुत! यहाँ आ, तुझे देनेको तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं तेरा ऋणी हूँ, तू मेरा महाजन है, तू चाहे तो मुझसे लिखा-पढ़ी करवा ले'॥

 अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ ।
     भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हृदय अघाउ ॥ 
    भावार्थ :- सुग्रीव और विभीषणने अपना कपट-भाव नहीं छोड़ा, परन्तु आपने तो उन्हें अपना ही लिया। भरतजीका तो सदा भरी सभामें आप सम्मान करते रहते हैं, उनकी प्रशंसा करते-करते तो आपके हृदयमें तृप्ति ही नहीं होती ॥

 निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ ।
     सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥ 
    भावार्थ :- भक्तोंपर आपने जो-जो दया और उपकार किये हैं, उनकी तो चर्चा चलते ही आप लज्जासे मानो गड़ जाते हैं (अपनी प्रशंसा आपको सुहाती ही नहीं ) पर जो एक बार भी आपको प्रणाम करता है और शरणमें आ जाता है, आप सदा उसका यश वर्णन करते हैं, सुनते हैं और कह-कहकर दूसरोंसे करवाते हैं ॥ 

 समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ ।
     तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥
    भावार्थ :-ऐसे कोमलहृदय श्रीरामजीके गुण-समूहोंको समझ-समझक मेरे हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी है, हे तुलसीदास! इस प्रेमानन्दके कारण तू अनायास ही श्रीरामके चरणकमलोंको प्राप्त करेगा ॥

  श्री सीता राम !

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