विनय पत्रिका-103।यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।Vinay patrika-103।Yah Binati Raghubir Gusain।


यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
     और आस-बिस्वास - भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥
    भावार्थ :- हे श्रीरघुनाथजी! हे नाथ! मेरी यही विनती है कि इस जीवको दूसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खताको आप हर लीजिये ॥

 चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई 
     हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़े अनुदिन अधिकाई ॥
    भावार्थ :- हे राम! मैं शुभगति, सदबुद्धि, धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता। बस, मेरा तो आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक से अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥ 

 कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई ।
     तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥
    भावार्थ :- मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस जिस योनिमें ले जायँ, उस-उस योनिमें ही हे नाथ! जैसे कछुआ अपने अंडोंको नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभरके लिये भी अपनी कृपा न छोड़ना ॥

 या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई ।
     ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥
    भावार्थ :- हे नाथ! इस संसारमें जहाँतक इस शरीरका (स्त्री पुत्र-परिवारादिसे) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही स्थानपर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ॥ 

श्री सीता राम !
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 हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों
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