विनय पत्रिका-93। कृपा सो धौं कहाँ बिसारीं राम।Kripa So Dhaun Kaha Bisari Ram। Vinay Patrika-93।
कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहि करुणा सुनी श्रवण दीन-दुख धावत हौ तजि धाम।।
भावार्थ :- हे श्रीरामजी! आपने उस कृपा को कहां भुला दिया, जिसके कारण दिनोंके दु:खकी करुण-ध्वनि कानोंमें पढ़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ाकरते हैं।
नागराज निज बल बिचारी हिय, हारि चरण चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न किन्हों।।
भावार्थ :- जब गजेंद्रने अपने बलकी ओर देखकर और हृदयमें हार मानकर आपके चरणोंमें चित लगाया, तब आप उसकी आर्त्त पुकार सुनते ही गरुणको छोड़कर तुरंत वहां पहुंचे, तनिक-सी भी देर नहीं की ।
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिज्ञा राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी।।
भावार्थ :- हिरण्यकशिपुसे रात-दिन भयभीत रहनेवाले प्रहलादकी प्रतिज्ञा आपने रखी, महान् बलवान् सिंह और मनुष्यका-सा (नृसिंह) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है।
भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्वो नर-नारी।
बसन पुरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी।।
भावार्थ :- 'नर' के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजभवनमें (अपनी लज्जा जाते देखकर) सब राजाओंके सामने पुकारकर कहा कि 'हे नाथ! मेरी रक्षा कीजिए' तब हे दैत्यशत्रु! आपने वहां द्रोपदीकी लाज बचानेको) वस्त्रों के ढेर लगाकर तथा शत्रुओंका सारा घमंड सुनकर चूर्णकर बड़ी कृपा की।।
एक एक रिपुते त्रसित जन, तुम राखो रघुबीर।
अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर।।
भावार्थ :- हे रघुनाथजी! आपने इन सब भक्तोंको एक-एक शत्रुके द्वारा सताए जानेपर भी बचा लिया था। पर यहां मुझेे तो बहुत-से शत्रु असह्य कष्ट रहे हैं। मेरी यह भव-पीड़ा आप क्यों नहीं दूर करते हैं?।।
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।
तुलसीदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार।।
भावार्थ :- लोभरूपी मगर, क्रोधरूपी दैत्यराज हिरण्यकश्यपु, दुष्ट कामदेवरूपी दुर्योधनका भाई दु:शासन, यह सभी मुझ तुलसीदासको दारुण दु:ख दे रहे हैं। हे उदार रामचन्द्रजी! मेरे इस दारुण दु:खका नाश कीजिए।।
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श्री सीता राम !
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