विनय पत्रिका-113।माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।Vinay patrika-113-Madhav! Ab N Drvhu Kehi Lekhe
माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥
भावार्थ :- हे माधव! अब तुम किस कारण कृपा नहीं करते? तुम्हारा प्रण तो शरणागतका पालन करना है और मेरा प्रण तुम्हारे चरणारविन्दोंको देख-देखकर ही जीना है। भाव यह कि जब मैं तुम्हारे चरण देखे बिना जीवन धारण ही नहीं कर सकता तब तुम प्रणतपाल होकर भी मुझपर कृपा क्यों नहीं करते ॥
जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तें स्वामी ।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥
भावार्थ :- जबतक मैं दीन और तुम दयालु, मैं सेवक और तुम स्वामी नहीं बने थे, तबतक तो मैंने जो दुःख सहे सो मैंने तुमसे नहीं कहे, यद्यपि तुम अन्तर्यामीरूपसे सब जानते थे ॥
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै ।
बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥
भावार्थ :- किन्तु अब तो मेरा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया है। तुम दानी हो और मैं कंगाल हूँ, तुम पतितपावन हो और मैं पतित हूँ, वेद इस बातको गा रहे हैं। हे रघुनाथजी! इस प्रकार मेरे-तुम्हारे अनेक सम्बन्ध हैं; फिर भला, तुम मुझे कैसे त्याग सकते हो?॥
जनक-जननि, गुरु-बंधु, सुहृद-पति, सब प्रकार हितकारी ।
द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥
भावार्थ :- मेरे पिता, माता, गुरु, भाई, मित्र, स्वामी और हर तरहसे हितू तुम्हीं हो। अतएव कुछ ऐसा उपाय सोचो, जिससे मैं द्वैतरूपी अँधेरे कुएँमें न गिरूँ, अर्थात् सर्वत्र केवल एक तुम्हें ही देखकर परमानन्दमें मग्न रहूँ ॥
सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी ।
तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु , संसय टरै न टारी ॥
भावार्थ :- हे कमलनयन! सुनो, तुम्हारी अपार करुणा भवसागरके भारी भयसे (आवागमनसे) छुड़ा देनेवाली है । हे नाथ! तुलसीदासका अज्ञान (रूपी अन्धकार) बिना तुम्हारे ज्ञानरूप प्रकाशके, बिना तुम्हारे दर्शनके, किसी प्रकार भी नहीं टल सकता (अतएव इसको तुम ही दूर करो) ॥
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