विनय पत्रिका-112-केशव! कारण कौन गुसाईं-Karn Kaun Gusain tajeu-Vinay patrika-112।

केशव ! कारण कौन गुसाईं।
        जेहि अपराध असाध जानी मोहिं तजेउ अग्यकि नाईं ।।1
        भावार्थ- हे केशव! हे स्वामी! ऐसा क्या कारण (अपराध) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया? ॥ १॥

परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।
        तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥
         भावार्थ- (यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं, और) जिनके आचरण बड़े ही पवित्र हैं, जो कोमलहृदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं, तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था? क्या उनसे आपकी कोई खास रिश्तेदारी थी ? ॥ २ ॥

काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे ।
        सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥
        भावार्थ- हे हरे! इस जीवका काल, कर्म,सुगति, दुर्गति सब कुछ आपहीके हाथ है; अतः हे प्रभो ! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर उधर भटकता न फिरूँ ॥ ३ ॥ 

जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे ।
        मन-बच-करम नरक सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥
        भावार्थ- यदि आप मुझे छोड़ भी देंगे, तो भी मैं तो आपहीको भजूँगा, दूसरे किसीको अपना प्रभु कभी नहीं मानूँगा, यह मेरा अटल प्रण है; आप नरक या स्वर्गमें जहाँ कहीं भी भेजेंगे, वहीं हे रघुनाथजी! मन, वचन और कर्मसे मैं आपहीकी विनय करता रहूँगा ॥ ४ ॥

जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।
        तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥ ५ ॥
        भावार्थ- हे नाथ! यद्यपि यह उचित नहीं है कि मैं प्रभुके साथ ऐसी ढिठाई करूँ,परन्तु रात-दिन आपकी निष्ठुरता देखकर यह तुलसीदास बड़ा दुःखी हो रहा है, (इसीसे बाध्य होकर) ऐसा कहना पड़ा ॥ ५ ॥


जय सियाराम

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