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श्री विष्णु आरती। Sri Vishnu Aarti।ॐ जय जगदीश हरे।Om Jai Jagdish Hare।

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श्री विष्णु आरती ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी  जय जगदीश हरे।     भक्तजनों के संकट, क्षण में दूर करे ॥ॐ जय..॥  जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसे मन का।     सुख-संपत्ति घर आवै, कष्ट मिटे तन का ॥ॐ जय..॥  मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं किसकी।     तुम बिनु और न दूजा, आस करूं जिसकी ॥ॐ जय..॥ तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतरयामी॥     पारब्रह्म परेमश्वर, तुम सबके स्वामी ॥ॐ जय..॥  तुम करुणा के सागर, तुम पालन कर्ता।     मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता ॥ॐ जय..॥  तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।     किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति ॥ॐ जय..॥ दीनबंधु दु:खहर्ता, तुम रक्षक मेरे।     अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे ॥ॐ जय..॥  विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।     श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा ॥ॐ जय..॥  तन-मन-धन, सब कुछ तेरा।     तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा ॥ॐ जय..॥  श्री जगदीश जी की आरती, जो कोई नर गावे।     कहत शिवानंद स्वामी, मनवांछित फल पावे ॥ ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी  जय जगदीश हरे। यह भी पढ़े श्री शिव आरती , ॐ जय शिव ओमकारा । लिंक :- https://amritrahasya.blogspot.com/2021/06/shiv-arti-jay-shiv-omkar

शिव आरती।जय शिव ओंकारा।Shiv Arti। Jay Shiv Omkara।

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शिव आरती जय शिव ओंकारा ॐ जय शिव ओंकारा ।      ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ जय शिव...॥ एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।      हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ जय शिव...॥ दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।      त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ जय शिव...॥ अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी ।      चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी ॥ ॐ जय शिव...॥ श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे ।      सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ जय शिव...॥ कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता ।      जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता ॥ ॐ जय शिव...॥ ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ।      प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ जय शिव...॥ काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी ।      नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ जय शिव...॥ त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे ।      कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ जय शिव...॥ ॐ नमः शिवाय ! यह भी पढ़े  श्री विष्णु आरती  ,  ॐ जय जगदीश हरे   । लिंक :-  https://amritrahasya.blogspot.com/2021/06/sri-vishnu-aarti-om-jai-jagdish-hare.html 🙏 कृपया लेख पसंद आये तो  इसे शेयर करे

विनय पत्रिका-107।है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।Hai Niko Mero Devta Kosalpati।Vinay patrika-107।

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 है नीको मेरो देवता कोसलपति राम ।   सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ भावार्थ :-  कोसलपति श्रीरामचन्द्रजी मेरे सर्वश्रेष्ठ देवता हैं, उनके कमलके समान सुन्दर नेत्र हैं और उनका शरीर परम सुन्दर श्यामवर्ण है ॥  सिय - समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग ।   भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ भावार्थ :-  श्रीसीताजीके साथ सदा शोभायमान रहते हैं, असंख्य कामदेवोंके समान उनका सौन्दर्य है। विशाल भुजाओंमें धनुष-बाण और कमरमें सुन्दर तरकस धारण किये हुए हैं ॥  बलिपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति ।   सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ भावार्थ :-  वे बलि या पूजा कुछ भी नहीं चाहते, केवल एक 'प्रेम' चाहते हैं। स्मरण करते ही प्रसन्न हो जाते हैं और सब तरहसे पवित्र कर देते हैं ॥  देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन-बंधु ।   गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ भावार्थ :-  सब सुख दे देते हैं और दुःखोंको भस्म कर डालते हैं। वे दुःखी जनोंके बन्धु हैं, गुणोंको ग्रहण करते और अवगुणोंको हर लेते हैं, ऐसे करुणा-सागर हैं ॥  देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान ।  सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जा

विनय पत्रिका-104।जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।।Vinay patrika-104।Janki Jivanki Bali Jaihaun।

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  जानकी-जीवनकी बलि जैहौं ।      चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं  ॥       भावार्थ :-  मैं तो श्रीजानकी-जीवन रघुनाथजीपर अपनेको न्योछावर कर दूंगा। मेरा मन यही कहता है कि अब मैं श्रीसीता-रामजीके चरणोंको  छोड़कर दूसरी जगह कहीं भी नहीं जाऊँगा ॥ उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं ।        मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥       भावार्थ :-  मेरे हृदयमें ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि अपने स्वामी श्रीरामजीके चरणोंसे विमुख होकर मैं स्वप्नमें भी कहीं सुख नहीं पा सकूँगा। इससे मैं मनको तथा इस शरीरमें रहनेवाले (इन्द्रियादि) सभीको यही उपदेश दूंगा ॥ श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं ।     रो किहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं॥      भावार्थ :-  कानोंसे दूसरी बात नहीं सुनूँगा, जीभसे दूसरेकी चर्चा नहीं करूँगा, नेत्रोंको दूसरी और ताकनेसे रोक लूंगा और यह मस्तक केवल भगवान्को ही झुकाऊँगा ॥ जातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं ।       य ह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥      भावार्थ :-  अब प्रभुके साथ नाता और प्रेम करके दूसरे सबसे न

विनय पत्रिका-103।यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।Vinay patrika-103।Yah Binati Raghubir Gusain।

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यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।        और आस-बिस्वास - भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥      भावार्थ :-  हे श्रीरघुनाथजी! हे नाथ! मेरी यही विनती है कि इस जीवको दूसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खताको आप हर लीजिये ॥  चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई  ।        हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़े अनुदिन अधिकाई ॥      भावार्थ :-  हे राम! मैं शुभगति, सदबुद्धि, धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता। बस, मेरा तो आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक से अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥   कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई ।        तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं ॥      भावार्थ :-  मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस जिस योनिमें ले जायँ, उस-उस योनिमें ही हे नाथ! जैसे कछुआ अपने अंडोंको नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभरके लिये भी अपनी कृपा न छोड़ना ॥  या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई ।        ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥      भावार्थ :-  हे नाथ! इस संसारमें जहाँतक

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला।Bhaye Pragat Kripala Din Dayal ।मानस स्तुति ।Manas Stuti।

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भए प्रगट कृपाला दीनदयाला, कौसल्या हितकारी।      हरषित महतारी, मुनि मन हारी, अद्भुत रूप बिचारी।। लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा, निज आयुध भुजचारी ।      भूषन बनमाला, नयन बिसाला, सोभासिंधु खरारी ॥ कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी, केहि बिधि करूं अनंता ।      माया गुन ग्यानातीत अमाना, वेद पुरान भनंता ॥ करुना सुख सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिं श्रुति संता ।      सो मम हित लागी, जन अनुरागी, भयउ प्रगट श्रीकंता ॥ ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया, रोम रोम प्रति बेद कहै ।      मम उर सो बासी, यह उपहासी, सुनत धीर मति थिर न रहै ॥ उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना, चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।      कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई, जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ माता पुनि बोली, सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा ।      कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला, यह सुख परम अनूपा ॥ सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना, होइ बालक सुरभूपा ।      यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं, ते न परहिं भवकूपा ॥ मानस स्तुति- भये प्रगट कृपाला दिनदयाला  youtube वीडियो भजन Bhaye Pragat Kriapala Dindyala  youtube video bhajan https://youtu.be/egQV8sZWkeI छंद :- मनु जाहिं राच

विनय पत्रिका-102।हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।Vinay patrika-102।Hari! Tum Bahut Anugrah kinho।

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हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों ।      साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥      भावार्थ :-  हे हरे! आपने बड़ी दया की, जो मुझे देवताओंके लिये भी दुर्लभ, साधनोंके स्थान मनुष्य-शरीरको कृपापूर्वक दे दिया॥   कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार ।       तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥       भावार्थ :-  यद्यपि आपका एक-एक उपकार करोड़ों मुखोंसे नहीं कहा जा सकता, तथापि हे नाथ! मैं कुछ और माँगता हूँ, आप बड़े उदार हैं, मुझे कृपा करके दीजिये॥   बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक ।        ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥      भावार्थ :-  मेरा मनरूपी मच्छ विषयरूपी जलसे एक पलके लिये भी अलग नहीं होता, इससे मैं अत्यन्त दारुण दुःख सह रहा हूँ। बार-बार अनेक योनियोंमें मुझे जन्म लेना पड़ता है॥ कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो ।      एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥      भावार्थ :-  ( इस मनरूपी मच्छको पकड़नेके लिये) हे रामजी! आप अपनी कृपाकी डोरी बनाइये और अपने चरणके चिह्न अंकुशको वंशीका काँटा बनाइये, उसमें परम प्रेमरूपी को

विनय पत्रिका-100।सुनि सीतापति सील सुभाउ।Vinay patrika-100।Suni Sitapati Sil Subhau।

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सुनि सीतापति सील सुभाउ ।        मोद न मन , तन पुलक , नयन जल , सो नर खेहर खाउ ॥       भावार्थ  :- श्रीसीतानाथ रामजीका शील-स्वभाव सुनकर जिसके मनमें आनन्द नहीं होता, जिसका शरीर पुलकायमान नहीं होता, जिसके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू नहीं भर आते, वह दुष्ट धूल फांकता फिरे तो भी ठीक है ॥   सिसुपनतें पित, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ ।        कहत राम बिधु बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥       भावार्थ  :- बचपनसे ही पिता, माता, भाई, गुरु, नौकर, मन्त्री, और मित्र यही कहते हैं कि हममें से किसीने स्वप्नमें भी श्रीरामचन्द्रजीके चन्द्र-मुखपर कभी क्रोध नहीं देखा ॥  खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ ।        जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥       भावार्थ  :- उनके साथ जो उनके तीनों भाई और नगरके दूसरे बालक खेलते थे, उनकी अनीति और हानिको वे सदा देखते रहते थे और अपनी जीतमें भी (उनको प्रसन्न करनेके लिये) हार मान लेते थे तथा उन लोगोंको पुचकार-पुचकारकर प्रेमसे अपना दाँव देते और दूसरोंसे दिलाते थे ॥  सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ ।        दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छ

विनय पत्रिका-97। जौ पै हरि जनके औगुन गहते।Vinay patrika-97।Jau Pai Hari Janke Augun Gahte-97

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जौ पै हरि जनके औगुन गहते।      तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते।।      भावार्थ :-   (आप दासोंके दोषोंपर ध्यान नहीं देते) हे रामजी! यदि आप दासोंका दोष मनमें लाते तो इंद्र, दुर्योधन और बालिसे  हठ करके क्यों शत्रुता मोल लेते?।। जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते।      तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते।।      भावार्थ :-  यदि आप जप, यज्ञ, योग, व्रत आदि छोड़कर केवल प्रेम ही न चाहते तो देवता और श्रेष्ठ मुनियोंको त्यागकर ब्रजमें गोपोंके घर किसलिए निवास करते ?।। जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते।      तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबाहते।।    भावार्थ :-  यदि आप जहां-तहां भक्तों का प्रण रखकर भजनका प्रभाव न बखानतें तो, हम-सरीखे मूर्खोंका कलयुगके कठिन कर्म-मार्ग में किस प्रकार निर्वाह होता?।। जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते।      तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते।।      भावार्थ :-  हे संकटहारी! यदि आपने पुत्रके संकेत से नारायणका नाम लेनेवाले अजामिलके अनंत पापोंको भस्म ना किया होता, तो यमदूत हम सरीखे बैलोंको खोज-खोजकर हलमें ह

विनय पत्रिका-93। कृपा सो धौं कहाँ बिसारीं राम।Kripa So Dhaun Kaha Bisari Ram। Vinay Patrika-93।

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कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम। जेहि करुणा सुनी श्रवण दीन-दुख धावत हौ तजि धाम।।  भावार्थ :-  हे श्रीरामजी! आपने उस कृपा को कहां भुला दिया, जिसके कारण दिनोंके दु:खकी करुण-ध्वनि कानोंमें पढ़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ाकरते हैं । नागराज निज बल बिचारी हिय, हारि चरण चित दीन्हों। आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न किन्हों।। भावार्थ :- जब गजेंद्रने अपने बलकी ओर देखकर और हृदयमें हार मानकर आपके चरणोंमें चित लगाया, तब आप उसकी आर्त्त पुकार सुनते ही गरुणको छोड़कर तुरंत वहां पहुंचे, तनिक-सी भी देर नहीं की  । दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिज्ञा राखी।      अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी।।    भावार्थ :- हिरण्यकशिपुसे रात-दिन भयभीत रहनेवाले प्रहलादकी प्रतिज्ञा आपने रखी, महान् बलवान् सिंह और मनुष्यका-सा (नृसिंह) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है । भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्वो नर-नारी।      बसन पुरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी।।      भावार्थ :-  'नर' के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजभवनमें (अपनी लज्जा ज

नरक में कौन और क्यों जाता है। नरक कितने प्रकार के होते हैं| Narak kitne prakar ke hote h |

चौरासी लाख योनियों में मानव योनि की श्रेष्ठता इस बात में निहित है कि यह बुद्धिमान और विवेकी है। जीवन से जुड़ी समस्याओं का यह बुद्धि के द्वारा समाधान कर सकता है और अपने जीवन को शक्तिमय बना सकता है। ऐसे व्यक्ति समाज के लिए भी आदर्श होते हैं।   मानव जीवन समस्याओं के समाधान के लिए ही होता है।  अपने को धनवान समझकर दूसरे को अपमानित नहीं करना चाहिए। ईश्वर अगर धन प्रदान किये है तो उसका स्वयं एवं समाज के हित में उपयोग करें न कि धन का प्रदर्शन और दुरुपयोग करें। धनवान और बुद्धिमान को अपने बारे में बताने की जरुरत नहीं पड़ती, एक समय के बाद समाज उनकी पहचान कर आदर देने लगता है। घन रहने के बावजूद भी जो न खाता है न खिलाता है उसे धनपिशाच कहा जाता है।  धन सम्पत्ति व्यक्ति की निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ समाज के जरुसमन्द लोगों के लिए भी है।आज इस तथ्य को समझकर कार्यान्वयन करने में ही व्यक्ति और समाज का कल्याण है। धन के प्रति व्यक्ति के एकाधिकार के कारण ही सामाजिक अतर्कलह पैदा हो रहे है।    जो अपने जीव न को मर्यादित रखकर सांसारिकता से ऊपर उठने का प्रयास करता है, उसके अभियान में समाज भी सहयो

विनय पत्रिका-96| जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके|Jau Pai Jiy Dharihau Avgun Jan Ke| Vinay patrika-96|

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जौ पै जिय धरिहौ अवगुन  जनके।      तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अद्य-बनके।।      भावार्थ :-  हे नाथ!  यदि आप इस दासके दोषोंपर ध्यान देंगे, तब तो पुन्यरूपी नखसे पापरूपी बड़े-बड़े वनोंके समूह मुझसे कैसे कटेंगे ? (मेरे जरा-से पुण्यसे भारी-भारी पाप कैसे दूर होंगे?) कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके।      हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके।।      भावार्थ :-  मन, वचन और शरीरसे किए हुए मेरे पापोंका वर्णन भी कौन कर सकता है? एक-एक छणके पापोंका हिसाब जोड़नेमें अनेक से शेष, सरस्वती और वेद हार जाएंगे।। जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके।      तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके।।      भावार्थ :-  (मेरे पुण्योंके भरोसे तो पापोंसे छूटकर उद्धार होना असंभव है) यदि आपके मनमें अपने नामकी महिमा और पतितोंको पावन करनेवाले अपने गुणोंका स्मरण आ जाए तो आप इस तुलसीदासको यमदूतोंके दांत तोड़कर संसार -सागरसे अवश्य वैसे ही तार देंगे, जैसे अजामिल ब्राह्मणको तार दिया था।। यह भी पढ़े श्री तुलसीदास जी द्वारा रचित  विनय पत्रिका   पद-95 , तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं । लिंक

विनय पत्रिका-99| बिरद गरीब निवाज रामको|Birad Garib Nivaj Ramko| Vinay patrika-99|

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बिरद गरीबनिवाज रामको।      गावत वेद-पुराण, सम्भु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको।। भावार्थ :-  श्री रामजी का बना ही गरीबों को निहाल कर देना है। वेद, पुराण, शिवजी, सुखदेवजी आदि यही गाते हैं। उनके श्रीरामनाम का प्रभाव तो प्रत्यक्ष ही है।। ध्रुव, प्रह्लाद, बिभीषन, कपिपति, जड़, पतंग, पांडव, सुदामको।      लोक सुजस परलोक सुगति, इन्हमे को है राम कामको।। भावार्थ :-  ध्रुव, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, जड़ (अहल्या), पक्षी (जटायु, काकभुशुण्डि), पाँचों पाण्डव और सुदामा इन सबको भगवान् ने इस लोकमें सुंदर यश और परलोकमें सद्गति दी। इनमेंसे रामके कामका भला कौन था?।। गनिका, कोल, किरात, आदिकबि इंहते अधिक बाम को।      बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको।। भावार्थ :-  गणिका(जीवंती), कोल-किरात(गुह-निषाद आदि) तथा आदिकवि बाल्मीकि, इनसे बुरा कौन था? अजामिलने कब अश्वमेधयज्ञ किया था, गजराज ने कम सामवेदका गान किया था?।। छली, मलीन, हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।      नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको।। भावार्थ :-  तुलसीके सामान कपटी, मलिन, सब साधनोंसे हीन, दुबला-पतला और कौन है? पर श्रीरामके नामरू

विनय पत्रिका-98 | ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। Vinay patrika-98, पद98

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ऐसी हरि करत दासपर प्रीति। निज प्रभुता बिसारि जनके बस,  होत सदा यह रीति।। भावार्थ :-  श्रीहरि अपने दास पर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूलकर उस भक्तके ही अधीन हो जाते हैं। उनकी यह रीति सनातन है।। जिन बांधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी। सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठी बांध्यो सकत न छोरी।। भावार्थ :- जिस परमात्माने देवता, दैत्य, नाग और मनुष्योंको कर्मोंकी बड़ी मजबूत डोरीमें बांध रखा है, उसी अखंड पर ब्रह्माको यशोदाजीने प्रेमवस जबरदस्ती (ऊखलसे) ऐसा बांध दिया कि जिसे आप खोल भी  नहीं सके।। जाकी मायाबस बिरंची सिव, नाचत पार न पायो। करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिंह सोइ नाच नचायो।। भावार्थ :- जिसकी मायाके वश होकर ब्रह्मा और शिवजी ने नाचते-नाचते उसका पार नहीं पाया उसीको गुप्म गोप-रमणीयों ने ताल बजा-बजाकर (आंगनमें ) नचाया।। बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, वेद-बिदित यह लिख। बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज मांगी भीख।। भावार्थ :- वेदका यह सिद्धांत प्रसिद्ध है कि भगवान सारे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और तीनों लोकोंके अधिश्वर हैं, ऐसे प्रभुकी भी

विनय पत्रिका-85। मन ! माधवको नेकु निहारहि। Vinay patrika,पद 85

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मन! माधवको नेकु निहारहि। सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों,  छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।। भावार्थ :- हे मन ! माधवकी ओर तनिक तो  देख! अरे दुष्ट! सुन, जैसे कंगाल क्षण-क्षणमें अपना धन संभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजी का समरण किया कर।। सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदरहि। रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि।। भावार्थ :- वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सद्गुणोंके स्थान हैं। वे सुंदर और बड़े दानी हैं। संतोको  प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं।। जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-परही। तौ जनि तुलसीदास निसि -बासर हरि-पद-कमल बिसरहि।। भावार्थ :- यदि तू बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और संयमके संसार-सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास! रात-दिनमें श्रीहरिके चरण-कमलोंको कभी मत भूल।। https://amritrahasya.blogspot.com/2021/01/vinay-patrika-73.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/95-vinay-patrika.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/96.html https://amritrahasya.blogspot.com/2021/05/98-vinay-patrika-98.html

विनय पत्रिका-211।कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। पद संख्या- 211 Vinay Patrika।

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कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे। जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे, तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उध्दरहुगे || भावार्थ :- हे रघुवंशमणि!  कभी आप  मुझपर भी वही कृपा करेंगे, जिसके प्रतापसे व्याध (वाल्मीकि) गजेंद्र, ब्राह्मण अजामिल और अनेक दुष्ट संसारसागरसे तर गए? हे नाथ! क्या आप मुझे भी उन्हीं पापियोंके समान समझकर मेरा भी उद्धार करेंगे ?।। जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि, अधम आचरण कछु हृदय नहि धरहुगे | दिनहित ! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे।। भावार्थ :- अनेक योनियों में जन्म ले-लेकर मैंने नाना प्रकारके दुष्ट कर्म किए हैं। आप मेरे नीचे आचरणोंकी बात तो हृदयमें लाएंगे? हे दिनोंका हित करनेवाले! क्या आप किसीसे भी ना जीते जाने, सबके मनकी बात जानने, सब कुछ करने में समर्थ होने और शरणागतों की रक्षा करने आदि अपने गुणोंका कोमल स्वभावसे अनुसरण करेंगे? (अर्थात अपने इन गुणोंकी ओर देखकर, मेरे पापोंसे घृणा कर, मेरे मनकी बात जानकर अपनी सर्वशक्तिमत्तासे मुझ शरणमें पड़े हुए का उधार करेंगे?)।। मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली       सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे। जोग-जप

श्रीदत्तात्रेय - यदु संवाद | Shri Datatrey - Yadu Samvad | श्रीदत्तात्रेयजी के 24 गुरु |

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       एकबार राजा यदु घुमते-घुमते वन में गये तो उन्होंने देखा कि एक वृक्ष के नीचे मोटा-ताजा, हृष्ट-पुष्ट, एक महात्मा निर्भय पड़े हैं। जिनका नाम दत्तात्रेय है। उन महात्मा से यदुजी ने पूछा कि हे महात्मन् ! यहाँ आस पास ना  तो   घर है , ना ही आप कोई   खेती-व्यापार आदि   ही करते हैं, ना ही आपके रहने की जगह   ही है, ना ही कोई यहाँ आपकी   सेवा करने वाले   ही हैं।  फिर भी आप उसी तरह मालूम पड़ रहे हैं, जैसे आप इस संसार में निर्भय हैं अर्थात इसी संसाररूपी जंगल में मैं   पुत्र, पत्नी, धन, संपत्ति रूपी मोह   एवं   लोभ रूपी अग्नि  से   जल रहा हूँ   परंतु आप पर कोई प्रभाव ही नहीं है ऐसा क्यों? राजा यदु के वचनों को सुनकर दत्तात्रेय जी मंद मुस्कराये, तो यदु जी ने कहा हे महात्मन्! आप यही कहना चाहते होंगे कि मैं त्यागी हूँ, मैं वैरागी और संन्यासी हूँ । तो ठीक ही है परंतु आप ही त्यागी-वैरागी और सन्यासी कैसे हो गए मैं क्यों नहीं हुआ? इसका कारण आप बताएं? तब श्रीदत्तात्रेय जी ने कहा हे यदु ! जिस कारण से मैंने संतोष और शांति आदि प्राप्त किया है, उसका मुख्य कारण है कि मैंने अपने जीवन में शिक्षा प्राप्ति