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मैं हरि, साधन करइ न जानी। He Hari, Sadhan Karai N Jani-विनय पत्रिका-122 Vinay patrika-122

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मैं हरि, साधन करइ न जानी।       जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥        भावार्थ :- हे हरे! मैंने (अज्ञानके नाशके लिये) साधन करना नहीं जाना। जैसा रोग था वैसी दवा नहीं की। इसमें इलाजका क्या दोष है ? ॥ १ ॥   सपने नृप कहँ घंटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे।        बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥        भावार्थ :- जैसे सपनेमें किसी राजाको ब्रह्महत्याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण व्याकुल हुआ जहाँ-तहाँ भटकता फिरे, परन्तु जबतक वह जागेगा नहीं तबतक सौ करोड़ अश्वमेधयज्ञ करनेपर भी वह शुद्ध नहीं होगा, वैसे ही तत्त्वज्ञानके बिना अज्ञानजनित पापोंसे छुटकारा नहीं मिलता॥२॥    स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।        बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥         भावार्थ :- जैसे अज्ञानके कारण मालामें महान् भयावने सर्पका भ्रम हो जाता है और वह (मिथ्या सर्पका भ्रम न मिटनेतक) अनेक हथियारों के द्वारा बलसे मारते-मारते थक जानेपर भी नहीं मरता, साँप होता तो हथियारोंसे मरता; इसी प्रकार यह अज्ञानसे भासनेवाला संसार भी ज्ञान हुए बिना

हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई-विनय पत्रिका-121-He Hari Yah Bhramki Adhika i- Vinay patrika-121

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हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई ।      देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥       भावार्थ :–  हे हरे! यह भ्रमकी ही अधिकता है कि देखने, सुनने, कहने और समझनेपर भी न तो संशय (असत्य जगत्को सत्य मानना) ही जाता है और न (एक परमात्माकी ही अखण्ड सत्ता है या कुछ और भी है ऐसा) सन्देह ही दूर होता है ॥ १ जो जग मृषा ताप-त्रय - अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।       कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे॥२॥             भावार्थ :– (कोई कहे कि) यदि संसार असत्य है, तो फिर तीनों तापोंका अनुभव किस कारणसे होता है ? (संसार असत्य है तो संसारके ताप भी असत्य हैं, परन्तु तापोंका अनुभव तो सत्य प्रतीत होता है।) (इसका उत्तर यह है कि) मृगतृष्णाका जल सत्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु जबतक भ्रम है, तबतक वह सत्य ही दीखता है दुःख होता है। इसी प्रकार जगत्में भी भ्रमवश दुःखोका अनुभव होता है ॥ २ ॥  सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागे ।       कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥         भावार्थ :– जैसे कोई सुन्दर सेजपर सोया हुआ मनुष्य सपनेमें समुद्रमें डूबनेसे भयभीत हो इसी भ्रमके कारण विशेष रह

विनय पत्रिका-120हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी He Hari! Kas N Harhu Bhram Bhari- Vinay patrika-120

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हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी ।            जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥            भावार्थ – हे हरे! मेरे इस (संसारको सत्य और सुखरूप आदि माननेके) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत् है, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य-सा ही भासता है ॥ १ ॥   अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।           बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीरकी नाईं ॥ २ ॥          भावार्थ – मैं यह जानता हूँ कि (शरीर-धन-पुत्रादि) विषय यथार्थमें नहीं है, किन्तु हे स्वामी! इतनेपर भी इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता। मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही हठ (मोह) से तोतेकी तरह परवश बँधा पड़ा हूँ (स्वयं अपने ही अज्ञानसे बँध-सा गया हूँ) ॥ २ ॥ सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।            बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥         भावार्थ – जैसे किसीको स्वप्न में अनेक प्रकारके रोग हो जायँ जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैद्य अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीड़ा नहीं मिटती (इसी प्रकार माया

विनय पत्रिका-117 हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै He Hari Kavan Dosh Tohin Vinay patrika-117

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हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।       जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥      भावार्थ - हे हरे! तुम्हें क्या दोष दूँ? (क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १॥  जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।       तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥      भावार्थ -  जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमें फँसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँमें गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भाँति इन्हींके पीछे भटकता हूँ ॥ २ ॥  भूत-द्रोह कृत मोह बस्य हित आपन मैं न बिचारो।       मद-मत्सर- अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥       भावार्थ -  अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता। मद, ईर्ष्या, अहंकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ! (बताइये मुझ सरीखा नीच और कौन होगा?) ॥ ३  बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।       बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥      भावार्थ -  वेदों और पुरा

विनय पत्रिका-116माधव! असि तुम्हारि यह माया Madhav! Asi Tumhari Yah Maya- Vinay patrika-116।

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माधव! असि तुम्हारि यह माया।      करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥        भावार्थ - हे माधव! तुम्हारी यह माया ऐसी (दुस्तर) है कि कितने ही उपाय करके पच मरो, पर जबतक तुम दया नहीं करते तबतक इससे पार पा जाना असम्भव ही है॥१॥ सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।      जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥२॥      भावार्थ -  सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ तथा दूसरोंको समझाता हूँ, पर तुम्हारी इस मायाका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आता और जबतक इसके वास्तविक रहस्यका अनुभव नहीं होता, तबतक मोहजनित संसारकी महान् विपत्तियाँ दु:ख देती ही रहेंगी ॥ २ ॥  ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।      तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि बासर धावै ॥ ३॥      भावार्थ -  ब्रह्मामृत बड़ा ही मधुर और शान्तिकर है, यदि मनको वह अमृतरस कहीं चखनेको मिल जाय, तो फिर यह विषयरूपी झूठे मृगजलके लिये क्यों रात-दिन भटकता फिरे ॥ ३ ॥ जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै।      सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥४॥      भावार्थ -  जिसके घरमें ही निर्मल चिन्तामणि वि

विनय पत्रिका-115 माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै Madhav! Moh-Phans Kyon Tutai- Vinay patrika-115।

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माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै ।      बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥        भावार्थ - हे माधव ! मेरी यह मोहकी फाँसी कैसे टूटेगी? बाहरसे चाहे करोड़ों साधन क्यों न किये जायँ, उनसे भीतरकी (अज्ञानकी) गाँठ नहीं छूट सकती ॥ १ ॥ घृतपूरन कराह  अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै ।      ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥२॥      भावार्थ -  घीसे भरे हुए कड़ाहमें जो चन्द्रमाकी परछाईं दिखायी देती है, वह (जबतक घी रहेगा तबतक) सौ कल्पतक ईंधन और आग लगाकर औटानेसे भी नष्ट नहीं हो सकती। (इसी प्रकार जबतक मोह रहेगा तबतक यह आवागमनकी फाँसी भी रहेगी) ॥ २ ॥  तरु- कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरे न जैसे।      साधन करिय बिचार हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥      भावार्थ -  जैसे किसी पेड़के कोटरमें कोई पक्षी रहता हो, वह उस पेड़के काट डालनेसे नहीं मर सकता, उसी प्रकार बाहरसे कितने ही साधन क्यों न किये जायँ, पर बिना विवेकके यह मन कभी शुद्ध होकर एकाग्र नहीं हो सकता ॥ ३ ॥  अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।      मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥      भावार्थ -  जैसे साँपके बिल

विनय पत्रिका-110 कहु केहि कहिय कृपानिध Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiye Kripanidhe -

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कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।       इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥         भावार्थ — हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥ १ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।       हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥       भावार्थ—  तो सदा सुख-सम्पत्ति और स्वर्ग-नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥ २ ॥  मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।      जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥       भावार्थ—  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दुःखी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दुःख नहीं होगा ? ॥ ३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।       तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥      भावार्थ—  अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ; परन्तु हे मुरारे! आप तो (अपराधका विचार न करक

विनय पत्रिका-112-केशव! कारण कौन गुसाईं-Karn Kaun Gusain tajeu-Vinay patrika-112।

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केशव ! कारण कौन गुसाईं।           जेहि अपराध असाध जानी मोहिं तजेउ अग्यकि नाईं ।।1           भावार्थ- हे केशव! हे स्वामी! ऐसा क्या कारण (अपराध) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया? ॥ १॥ परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।           तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥             भावार्थ- (यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं, और) जिनके आचरण बड़े ही पवित्र हैं, जो कोमलहृदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं, तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था? क्या उनसे आपकी कोई खास रिश्तेदारी थी ? ॥ २ ॥ काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे ।           सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥           भावार्थ-  हे हरे! इस जीवका काल, कर्म,सुगति, दुर्गति सब कुछ आपहीके हाथ है; अतः हे प्रभो ! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर उधर भटकता न फिरूँ ॥ ३ ॥  जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे ।           मन-बच-करम नरक सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥           भावा

हिंदी गिनती 01 To 100 Numbers Hindi and English Counting ginti

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 Numbers in hindi English 01 to 100  01 से 100 तक गिनती हिन्दी अंग्रेजी  Numbers in hindi English 01 to 20  01 से 20 तक गिनती हिन्दी अंग्रेजी  Numbers in hindi English 21 to 40  21 से 40 तक गिनती हिन्दी अंग्रेजी Numbers in hindi English 41 to 60  41 से 60 तक गिनती हिन्दी अंग्रेजी Numbers in hindi English 61 to 80  61 से 80 तक गिनती हिन्दी अंग्रेजी Numbers in hindi English 81 to 100  81 से 100 तक गिनती हिन्दी अंग्रेजी

विनय पत्रिका-114।माधव! मो समान जग माहीं-Madhav! Mo Saman Jag Mahin-Vinay patrika-114।

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माधव! मो समान जग माहीं ।       सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन - बिषय कोउ नाहीं ॥१ ॥      भावार्थ :-   हे माधव! संसारमें मेरे समान, सब प्रकारसे साधनहीन, पापी, अति दीन और विषय-भोगोंमें डूबा हुआ दूसरा कोई नहीं है ॥   तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत - हित ईस न त्यागी ।        मैं दुख - सोक - बिकल कृपालु ! केहि कारन दया न लागी ॥      भावार्थ :-   और तुम्हारे समान, बिना ही कारण कृपा करनेवाला, दीन-दुःखियोंके हितार्थ सब कुछ त्याग करनेवाला स्वामी कोई दूसरा नहीं है। भाव यह है कि दीनोंके दुःख दूर करनेके लिये ही तुम वैकुण्ठ या सच्चिदानन्दघनरूप छोड़कर धराधाममें मानवरूपमें अवतीर्ण होते हो, इससे अधिक त्याग और क्या होगा? इतनेपर भी मैं दु:ख और शोकसे व्याकुल हो रहा हूँ। हे कृपालो! किस कारण तुमको मुझपर दया नहीं आती? ॥   नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।       ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥      भावार्थ :-  मैं यह मानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, सब मेरा ही अपराध है। क्योंकि तुमने मुझे जो ज्ञानका भण्डार यह मनुष्य-शरीर दिया, उसे पाकर भी मैंने तुम सरीख

भक्त नामावली- Bhakt Namavali-mukhy mahant Kam Rati Ganpati

 भक्त नामावली           हमसों इन साधुन सों पंगति। जिनको नाम  लेत दुःख छूटत, सुख लूटत तिन संगति।। मुख्य महंत काम रति गणपति, अज महेस नारायण। सुर नर असुर मुनि पक्षी पशु, जे हरि भक्ति परायण।। वाल्मीकि नारद अगस्त्य शुक, व्यास सूत कुल हीना। शबरी स्वपच वशिष्ठ विदुर, विदुरानी प्रेम प्रवीणा।। गोपी गोप द्रोपदी कुंती, आदि पांडवा ऊधो। विष्णु स्वामी निम्बार्क माधो, रामानुज मग सूधो।। लालाचारज धनुरदास, कूरेश भाव रस भीजे। ज्ञानदेव गुरु शिष्य त्रिलोचन, पटतर को कहि दीजे।। पदमावती चरण को चारन, कवि जयदेव जसीलौ। चिंतामणि चिदरूप लखायो, बिल्वमंगलहिं रसिलौ।। केशवभट्ट श्रीभट्ट नारायण, भट्ट गदाधर भट्टा। विट्ठलनाथ वल्लभाचारज, ब्रज के गूजरजट्टा।। नित्यानन्द अद्वैत महाप्रभु, शची सुवन चैतन्या। भट्ट गोपाल रघुनाथ जीव, अरु मधु गुसांई धन्या।। रूप सनातन भज वृन्दावन, तजि दारा सुत सम्पत्ति। व्यासदास हरिवंश गोसाईं, दिन दुलराई दम्पति।। श्रीस्वामी हरिदास हमारे, विपुल विहारिणी दासी। नागरि नवल माधुरी वल्लभ, नित्य विहार उपासी।। तानसेन अकबर करमैति, मीरा करमा बाई। रत्नावती मीर माधो, रसखान रीति रस गाई।। अग्रद

सत्यनारायण भगवान कथा । SatyaNarayan Vrat Katha।

     सत्य को नारायण (विष्णु के रूप में पूजना ही सत्यनारायण की पूजा है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि संसार में एकमात्र नारायण ही सत्य हैं, बाकी सब माया है।      भगवान विष्णु के कई रूपों की पुजा की जाती है, उनमें से एक सत्यनारायण भगवान के स्वरूप इस कथा में बताया गया है।  व्रत कथा के अलग-अलग अध्यायों में छोटी कहानियों के माध्यम से बताया गया है कि सत्य का पालन न करने पर किस तरह की परेशानियां आती है। इसलिए जीवन में सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए। ऐसा न करने पर भगवान न केवल नाराज होते हैं अपितु दंड स्वरूप संपति और बंधु बांधवों के सुख से वंचित भी कर देते हैं। इस अर्थ में यह कथा लोक में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। प्रायः पूर्णमासी को इस कथा का परिवार में वाचन किया जाता है। अन्य पर्वों पर भी इस कथा को विधि विधान से करने का निर्देश दिया गया है। इनकी पूजा में केले के पत्ते व फल के अलावा पंचामृत , पंचगव्य , सुपारी , पान , तिल , मोली , रोली , कुमकुम , दूर्वा की आवश्यकता होती जिनसे भगवान की पूजा होती है। सत्यनारायण की पूजा

श्री रामचरितमानस अयोध्या काण्ड गतांक दोहा 45से सोरठा क्रमांक 50 तकSri Ramcharitmanas-Ayodhya Kand Doha 45 To 50

श्री रामचरितमानस अयोध्या काण्ड गतांक दोहा 45 से सोरठा क्रमांक 50 तक जाने समझे और अपने जीवन मे उतारे। दोहा : मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।           आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥45॥           भावार्थ :- हे पिताजी! इस मंगल के समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिए और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिए। यह कहते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी सर्वांग पुलकित हो गए॥45॥ चौपाई : धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥           चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1॥           भावार्थ :-   (उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठी में) रहते हैं॥1॥ आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥           बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥2॥           भावार्थ :-   आपकी आज्ञा पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊँगा, अतः कृपया आज्ञा दीजिए। माता से विदा माँग आता हूँ। फिर आपके पैर

विनय पत्रिका-109।कस न करहु करुना हरे ! दुखहरन मुरारि !Kas N Karhu Karuna Hare!dukhaharan Murari।Vinay patrika-109।

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  कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!   त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि ॥ भावार्थ :-   हे हरे! हे मुरारे! आप दु:खोंके हरण करनेवाले हैं, फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते? आप दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकारके तापोंके और सन्देह, शोक, अज्ञान तथा भयके नाश करनेवाले हैं। (मेरे भी दु:ख, ताप और अज्ञान आदिका नाश कीजिये) ॥  इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन ।  तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ भावार्थ :-  एक तो कलिकालसे उत्पन्न होनेवाले पापोंसे मेरी बुद्धि मन्द पड़ गयी है और मन मलिन हो गया है, तिसपर फिर हे स्वामी! आप भी मेरी सँभाल नहीं करते? तब इस दासका जीवन कैसे निभेगा? ॥  सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन ।   यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन ॥ भावार्थ :-    हे प्रभो! आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं और मैं सब प्रकारसे दीन हूँ। यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नहीं करते , इससे मालूम होता है कि मैं भाग्यहीन ही हूँ॥  भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे ।   दुख - सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ भावार्थ :-   हे रघुनाथजी! मैं अनेक योनियोंमें भटक आया हूँ ;

विनय पत्रिका-111।केसव! कहि न जाइ का कहिये।Vinay patrika-111-Keshav! Kahi N Jai Ka Kahiye-

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केसव ! कहि न जाइ का कहिये ।   देखत तव रचना बिचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ भावार्थ :- हे केशव! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता । हे हरे! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन ही मन (आपकी लीला) समझकर रह जाता हूँ॥  सून्य भीति पर चित्र , रंग नहि , तनु बिनु लिखा चितेरे ।   धोये मिटइ न मरइ भीति , दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ भावार्थ :-   कैसी अद्भुत लीला है कि इस (संसाररूपी) चित्रको निराकार (अव्यक्त) चित्रकार (सृष्टिकर्ता परमात्मा) ने शून्य (मायाकी) दीवारपर बिना ही रंगके (संकल्पसे ही) बना दिया। (साधारण स्थूल-चित्र तो धोनेसे मिट जाते हैं, परन्तु) यह (महामायावी-रचित माया-चित्र) किसी प्रकार धोनेसे नहीं मिटता। ( साधारण चित्र जड है, उसे मृत्युका डर नहीं लगता परन्तु) इसको मरणका भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है परन्तु) इस संसाररूपी भयानक चित्रकी ओर देखनेसे दुःख होता है॥ रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं ।   बदन - हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ भावार्थ :-  सूर्यकी किरणोंमें (भ्रमसे) जो जल दिखायी देता है उस जलमें एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुँह नहीं

विनय पत्रिका-113।माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।Vinay patrika-113-Madhav! Ab N Drvhu Kehi Lekhe

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माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।   प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ भावार्थ :-   हे माधव! अब तुम किस कारण कृपा नहीं करते? तुम्हारा प्रण तो शरणागतका पालन करना है और मेरा प्रण तुम्हारे चरणारविन्दोंको देख-देखकर ही जीना है। भाव यह कि जब मैं तुम्हारे चरण देखे बिना जीवन धारण ही नहीं कर सकता तब तुम प्रणतपाल होकर भी मुझपर कृपा क्यों नहीं करते ॥ जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तें स्वामी ।   तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ भावार्थ :-   जबतक मैं दीन और तुम दयालु, मैं सेवक और तुम स्वामी नहीं बने थे, तबतक तो मैंने जो दुःख सहे सो मैंने तुमसे नहीं कहे, यद्यपि तुम अन्तर्यामीरूपसे सब जानते थे ॥  तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै ।   बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥    भावार्थ :-  किन्तु अब तो मेरा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया है। तुम दानी हो और मैं कंगाल हूँ, तुम पतितपावन हो और मैं पतित हूँ, वेद इस बातको गा रहे हैं। हे रघुनाथजी! इस प्रकार मेरे-तुम्हारे अनेक सम्बन्ध हैं; फिर भला, तुम मुझे कैसे त्याग सकते हो?॥  जनक-जननि

विनय पत्रिका-110।कहु केहि कहिय कृपानिधे।Vinay patrika-110-Kahu Kehi Kahiy Kripanidhe

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 कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति ।        इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥१ ॥ भावार्थ :-  हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं ॥१ ॥  जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी ।        हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥२ ॥      भावार्थ :-  ये तो सदा सुख - सम्पत्ति और स्वर्ग - नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं ; पर हे हरे ! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है ॥२ ॥   मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे ।       जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥३ ॥      भावार्थ :-  हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दु:खी हूँ- आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दु:ख नहीं होगा? ॥३ ॥  जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे ।        तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥४ ॥        भावार्थ :-   अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ ; परन्तु हे मुरारे ! आप तो ( अपराध क