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श्रीदत्तात्रेय - यदु संवाद | Shri Datatrey - Yadu Samvad | श्रीदत्तात्रेयजी के 24 गुरु |

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       एकबार राजा यदु घुमते-घुमते वन में गये तो उन्होंने देखा कि एक वृक्ष के नीचे मोटा-ताजा, हृष्ट-पुष्ट, एक महात्मा निर्भय पड़े हैं। जिनका नाम दत्तात्रेय है। उन महात्मा से यदुजी ने पूछा कि हे महात्मन् ! यहाँ आस पास ना  तो   घर है , ना ही आप कोई   खेती-व्यापार आदि   ही करते हैं, ना ही आपके रहने की जगह   ही है, ना ही कोई यहाँ आपकी   सेवा करने वाले   ही हैं।  फिर भी आप उसी तरह मालूम पड़ रहे हैं, जैसे आप इस संसार में निर्भय हैं अर्थात इसी संसाररूपी जंगल में मैं   पुत्र, पत्नी, धन, संपत्ति रूपी मोह   एवं   लोभ रूपी अग्नि  से   जल रहा हूँ   परंतु आप पर कोई प्रभाव ही नहीं है ऐसा क्यों? राजा यदु के वचनों को सुनकर दत्तात्रेय जी मंद मुस्कराये, तो यदु जी ने कहा हे महात्मन्! आप यही कहना चाहते होंगे कि मैं त्यागी हूँ, मैं वैरागी और संन्यासी हूँ । तो ठीक ही है परंतु आप ही त्यागी-वैरागी और सन्यासी कैसे हो गए मैं क्यों नहीं हुआ? इसका कारण आप बताएं? तब श्रीदत्तात्रेय जी ने कहा हे यदु ! जिस कारण से मैंने संतोष और शांति आदि प्राप्त किया है, उसका मुख्य कारण है कि मैंने अपने जीवन में शिक्षा प्राप्ति

विनय पत्रिका-95 | तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं।Tau N Mere Agh-Avgun Ganihain| vinay Patrika-95|

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तऊ न मेरे अघ -अवगुन गनिहैं। जौ जमराज काज सब परिहरि,  इहै ख्याल उर अनिहैं।। भावार्थः-  हे श्रीरामजी! यदि यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पापों और दोषोंके हिसाब -किताबका खयाल करने लगेंगे, तब भी उनको गेम गिन नहीं सकेंगे (क्योंकि मेरे पापों की कोई सीमा नहीं है) ।  चलिहैं छुटि पुंज पापिनके,  असमंजस जिय जनिहैं। देखि खलल अधिकार प्रभुसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं।। भावार्थः- (और जब वह मेरे हिसाबमें लग जाएंगे, तब उन्हें इधर उलझे हुए समझकर) पापियोंके दल- के- दल छूटकर भाग जाएंगे। इससे उनके मनमें बड़ी चिंता होगी। (मेरे कारणसे ) अपने अधिकारमें बाधा पहुंचते देखकर भगवानके दरबारमें अपने को निर्दोष साबित करनेके लिए) वह आपके सामने मेरी बहुत बढ़ाई कर देंगे (कहेंगे की तुलसीदास आपका भक्त है, इसने कोई पाप नहीं किया, आपके भजनके प्रतापसे इसने दूसरे पापियोंको भी पाप के बंधन से छुड़ा दीया)।। हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-शिरोमनि मनिहैं। ज्यों त्यों तुलसीदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं।। भावार्थः- तब आप हंसकर अपने भक्त यमराजका विश्वास कर लेंगे और मुझे भक्तों में शिरोमणि मान लेंगे ।बात यह है कि हे क

विनय-पत्रिका-186| कौन जतन बिनती करिये। पद संख्या- 186 |Vinay Patrika-186।

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कौन जतन बिनती करिये।  निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये। भावार्थ :- हे नाथ ! मैं किस प्रकार आपकी विनती करूँ ?  जब अपने (नीच) आचरणों पर विचार करता हूँ और समझता हूँ, तब हृदय में हार मानकर डर जाता हूँ ( प्रार्थना करने का साहस ही नहीं रहा जाता )।। जेहि साधन हरि ! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये। जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये।। भावार्थ :-  हे हरे ! जिस साधनसे आप मनुष्यको दास जानकर उसपर कृपा करते हैं, उसे तो मैं हठपूर्वक छोड़ रहा हूँ। और जहाँ विपत्तिके जालमें फँसकर दिन-रात दुःख ही मिलता है, उसी (कु) - मार्गपर चला करता हूँ।। जानत हूँ मन बचन करम पर- हित किन्हें तरिये। सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये।। भावार्थ :- यह जानता हूँ कि मन, वचन और कर्मसे दूसरों की भलाई करनेसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा, पर मैं इससे उलटा ही आचरण करता हूँ, दूसरोंके सुखको देखकर बिना ही कारण (ईष्याग्निसे) जला जा रहा हूँ।। श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये। निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये।। भावार्थ :-  वेद -पुराण सभी का यह सिद्धांत है कि खूब दृढ़तापूर्वक सत्संग का आश्

विनय-पत्रिका-73 जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जमीनी। पद संख्या- 73| Vinay Patrika-73 |

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जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी। देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी।। भावार्थ :-  अरे मूर्ख जीव! जाग, जाग, ! इस संसाररूपी रात्रिको देख ! शरीर और घर -कुटुम्ब के प्रेम को ऐसा क्षणभंगुर समझ जैसे बादलों के बीच की बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है।। सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-सन्ताप रे। बुड्यो मृग-बारि खायो जेवरिको साँप रे।। भावार्थ :- (जागने के समय ही नहीं) तू सोते समय सपनेमें भी संसार के कष्ट ही सह रहा है; अरे ! तू भ्रमसे मृग-तृष्णा के जलमें डूबा जा रहा है और तुझे रस्सीका सर्प डँस रहा है।। कहैं बेद-बुध, तू तो बुझि मनमानहिं रे। दोष-दुख सपने के जागे ही पै जाहिं रे।। भावार्थ :-  वेेद और विद्वान् पुकार-पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मनमें विचार कर समझ ले कि स्वप्नके सारे दुःख और दोष वास्तवमें जागनेपर ही नष्ट होते हैं।। तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे। राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे।। भावार्थ :-  हे तुलसी ! संसारके तीनों ताप अज्ञानरूपी निद्रासे जागने पर ही नष्ट होते हैं और तभी श्रीराम-नाममें  अहैतुकी स्वाभाविक विशुद्ध प्रीति उत्पन्न होती है।। https://amritrahasya.blogspot.com/2

विनय-पत्रिका-118। हे हरि! कवन जतन सुख मानहु। | Vinay Patrika | पद संख्या-118

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हे हरि! कवन जतन सुख मानहु। ज्यों गज- दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु।। भावार्थ :-  हे हरे! मैं किस प्रकार सुख मानूँ? मेरी करनी हाथी के दिखावटी दाँतोंके समान है, यह सब तो तुम भलीभाँति जानते ही हो। भाव यह है कि जैसे हाथी के दाँत दिखाने के और तथा खाने के और होते हैं, उसी प्रकार मैं भी दिखाता कुछ और हूँ और करता कुछ और ही हूँ।। जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे। रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद- सुख पाइय कैसे।। भावार्थ :-  मैं दूसरों से जो कुछ कहता हूँ वैसा ही स्वयं करने में भी लगूँ तो भव-सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेकी भाँति अनायास ही तर जाऊँ। परन्तु करूँ क्या ? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता हूँ कुछ और ही। फिर भला तुम्हारे चरणोंका या परमपदका आनन्द कैसे मिले? || देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी। सबिष उरग- आहार , निठुर अस, यह करनी वह बानी।। भावार्थ :-  मोर देखनेमें तो सुन्दर लगता है और मीठी वाणी से अमृतसे सने हुए-से वचन बोलता है; किन्तु उसका आहार जहरीला साँप है! कैसा निष्ठुर है! करनी यह और कथनी वह! (यही मेरा हाल है) अखिल- जीव- वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल- अनुरा

विनय-पत्रिका-119| हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।He Hari!Kavan Jatan Bhram Bhage| पद संख्या-119 | Vinay Patrika-119

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हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै। देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाव नहिं त्यागै।। भावार्थ :- हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, नित्य पवित्र और सुखरूप माननेका) भ्रम किस उपायसे दूर होगा ? देखता है, सुनता है, सोचता है, फिर भी मेरा यह मन अपने स्वभाव को छोड़ता। (और संसार को सत्य सुखरूप मानकर बार-बार विषयों में फँसता है) ।। भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई। कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई।। भावार्थ :-  भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी साधन इस मनको शान्त करने के उपाय हैं, परन्तु मेरे हृदय से तो यही वासना कभी नहीं जाती कि 'कोई मुझे अच्छा कहे' अथवा 'मुझे कुछ दे।' (ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के साधकों के मनमें भी प्रायः बड़ाई और धन-मान पानेकी वासना बनी ही रहती है)।।  जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै। निज करनी बीपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै।। भावार्थ :-  जिस (संसाररूपी) रातमें सब जीव सोते हैं उसमें केवल आपका कृपापात्र जन जागता है। किन्तु मुझे तो अपनी करनी को बिलकुल ही विपरीत देखकर बड़ा भारी भय लग रहा है।। जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत

विनय पत्रिका-92। माधवजू, मोसम मंद न कोऊ। पद संख्या- 92 । Vinay Patrika

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माधव जू, मोसम मन्द न कोऊ। जद्यपि मीन-पतंग हिनमती, मोहि नहिं पूजैं ओऊ।। भावार्थ :-  हे माधव! मेरे समान मूर्ख कोई भी नहीं है।यद्यपि मछली और पतंग हीन बुद्धि हैं, परन्तु वो भी मेरी बराबरी नहीं कर सकते।। रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो। देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयानयो।। भावार्थ :-  पतंग ने सुंदर रूपके वश हो दीपकको अग्नि नहीं समझा और मछली ने आहारके वश हो लोहेके काँटा नहीं जाना , परंतु मैं तो विषयों को प्रत्यक्ष विपत्तिरूप देखकर भी नहीं छोडता हूँ (अतएव मैं उनसे अधिक मूर्ख हूँ )  महामोह-सरिता अपार महँ, सन्तत फिरत बह्यो। श्रीहरि-चरण -कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यौ।। भावार्थ :- महमोह रूपी अपार नदी में निरंतर बहता फिरता हूँ | (इससे पार होनेके लिए ) श्री हरि के चरण-कमल रूपी नौकाको तजकर बार-बार फेनोंको (अर्थात क्षडभंगुर भोगों को ) पकड़ता हूँ  || अस्थि पुर तन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै  | निज तालुगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ||      भावार्थ :- जैसे बहुत भूखा कुत्ता पुरानी सुखी हड्डी को मुंहमें भरकर पकड़ता है और अपने तालुमें रगड़ लगनेसे जो खून निकलता है,

विनय पत्रिका-101 | जाऊँ कहाँ तजी चरण तुम्हारे | Vinay patrika-101| पद संख्या १०१

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     जाऊँ  कहाँ  तजि चरण तुम्हारे | काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दिन पियारे ||          भावार्थ :- हे नाथ-आपके चरणों को छोडकर और कहाँ जाऊँ?  संसारमें 'पतित पावन' नाम और किसका है ? (आपकी भाँति ) दिन -दुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं ?|| कौने देव बराइ बिरद -हित, हठी हठी अधम उधारे | खग, मृग , ब्याध, पषन, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ||            भावार्थ :- आजकल किस देवताने अपने बानेको रखने के लिए हठपूर्वक चुन-चुनकर निचों का उद्धार किया है ? किस देवताने पक्षी (जटायु)पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर(अहल्या), जड वृक्ष(यमलार्जुन) और यवनों का उद्धार किया है ?। देव,दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब , माया-बिबस बिचारे | तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ||            भावार्थ :- देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मानुष आदि सभी बेचारे मायके वश हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बन्धनको कैसे खोल सकता है) इसलिए हे प्रभु! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथों में सौंपकर क्या करे? ।। श्री सिता राम! 🙏 कृपया लेख पसंद आये तो अपना विचार कॉमेंट बॉक्स में जरूर साझा करें ।    इसे शेयर करें, जि

विनय पत्रिका-66।राम जपु, राम जपु,राम जपु बाबरे।Ram Japu,Ram Japu,Ram Japu बबरे|Vinay Patrika-66।

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राम जपु, राम जपु, राम जपु बाबरे। घोर भव- नीर- निधि नाम निज नाव रे।। भावार्थः-  अरे पागल! राम जप, राम जप, राम जप। इस भयानक संसाररूपी समुद्र से पार उतरनेके लिये श्रीरामनाम ही अपनी नाव है। अर्थात इस रामनाम रूपी नावमें बैठकर मनुष्य जब चाहे तभी पार उतर सकता है, क्योंकि यह मनुष्य के अधिकार में है।। एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे। ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम- समाधि रे।। भावार्थः-  इसी एक साधन के बलसे सब ऋद्धि-सिद्धियों को साध ले, क्योंकि योग, संयम और समाधि आदि साधनों को कलिकाल रूपी रोगने ग्रस लिया है।। भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे। राम नाम ही सों अंत सब ही को काम रे।। भावार्थः- भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो, अन्तमें सबको एक रामनाम से ही काम पड़ेगा।। जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे। धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे।। भावार्थः-  यह जगत भ्रमसे आकाश में फले-फूले दिखनेवाले बगीचे के समान सर्वथा मिथ्या है, धुएँ के महलों की भाँति क्षण-क्षणमें दिखने और मिटनेवाले इन सांसारिक पदार्थों को देखकर तू भूल मत ।। राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे। तुलसी परोसो त्यागि मांगै कूर

विनय पत्रिका 252| तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । Pad No-252 Vinay patrika| पद संख्या 252 ,

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      तुम सम दीनबन्धु, न दिन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई । मौसम कुटिल- मौलिमनि नहिं जग, तुमसम हरि! न हरन कुटिलाई ।।          भावार्थ - हे  महाराज रामचन्द्रजी! आपके समान तो कोई दिनोंका कल्याण करनेवाला बंधू नहीं है और मेरे समान कोई दिन नहीं है! मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं है || हौं मन- बचन- कर्म पटक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई। हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ- हित, चित यही सुरति कबहुँ नहिं जाई।।           भावार्थ - मैं मनसे, वचनसे और कर्म से पापोंमें रत हूँ और हे कृपालो! आप पापियोंको परमगति देनेवाले हैं | मैं अनाथ हूँ और हे प्रभु  आप अनाथों का हिट करनेवाले हैं | यह बात मेरे मन से कभी नहीं जाती || हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई। हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई।।           भावार्थ - मैं दुःखी हूँ, आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं| आपका यश यह वेद-पुराण गा रहे हैं| मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं| (आपके और मेरे इतने संबन्ध होनेपर भी) क्या कार

विनय पत्रिका 270 कबहुँ कृपा करि रघुबीर ! Pad No-270 Vinay patrika| पद संख्या -270

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कबहुँ कृपा करि रघुबीरसिदास ! मोहू चितैहो |     भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि ! अवगुन अमित बितैहो  ||      भावार्थ :- हे ! रघुबीर ! कभी कृपा कर मेरी ओर भी देखेंगे ? हे दयानिधान ! 'भला-बुरा जो कुछ भी हूँ , आपका दास हूँ ', अपने मनमें इस बात को समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अंत कर देंगे ? (अपनी दया से मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगें ?)|| जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो | हौं सनाथ ह्वैहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ||       भावार्थ :-  (अबसे पूर्व)  प्रत्येक जन्म में यह मन मुझे जीतता चला आया है (मैं इससे हारकर विषयोंमें फँसता रहा हूँ ), इस बार क्या आप मुझे इससे जीता देंगे ?) (क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणों में लग जाएगा ?) (तब) मैं तो सनाथ  हो ही जाऊंगा किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रता से नहीं डरेंगे,तो 'अनाथ-पति' पुकारे जाने लगेंगे (मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ- नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा )|| बिनय करों अपभयहु तेन, तुम्ह परम हिते हो |  तुलसि दास कासों कहै, तुमही सब मेरे , प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो ||      भावार

विनय पत्रिका-210 |औरु कहँ ठौर रघुबंस -मणि! मेरे। Auru Kaha Thaur Raghuvasns Mani ! Vinay patrika| पद संख्या 210

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औरु कहँ ठौर रघुबंस-मनि! मेरे।       पतित -पावन प्रनत-पाल असरन-सरन, बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि करे।।            भावार्थ :- हे रघुवंशमणि! मेरे लिये (आपके चरणोंको छोड़कर) और कहाँ ठौर है? पापियोंको पवित्र करनेवाले, शरणागतोंका पालन करनेवाले एवं अनाथोंको आश्रय देनेवाले एक आप ही हैं। आपका-सा बाँका बाना किस बानेवालेका है? (किसीका भी नहीं ) || समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,      करत नहिं कान बिनती बदन फेरे। तदपि ह्वै निडर हैं कहौं करुणा-सिंधु,       क्योंअब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे।।           भावार्थ :-  हे रघुनाथजी! मेरे अपराधोंको मनमें  समझकर अत्यन्त क्रोध यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे हुए हैं, तथापि मैं तो निर्भय होकर, हे करुणा के समुद्र ! यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर (मेरी दिन पुकार सुनक र ) मेरी ओर देखे बिना आपको कैसे रहा जाता है? ( करुणा के सागर से दिनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय?) मुख्य रूचि  होत बसिबेकि पुर रावरे,        राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे। अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,         नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे।।           भावार्थ:- (य

पशुपतिनाथ मंदिर

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 नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का इतिहास और पौराणिक मान्यता!!!!!! विश्व में दो पशुपतिनाथ मंदिर प्रसिद्ध है एक नेपाल के काठमांडू का और दूसरा भारत के मंदसौर का। दोनों ही मंदिर में मुर्तियां समान आकृति वाली है। नेपाल का मंदिर बागमती नदी के किनारे काठमांडू में स्थित है और इसे यूनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल किया गया है। यह मंदिर भव्य है और यहां पर देश-विदेश से पर्यटक आते हैं।           पशु अर्थात जीव या प्राणी और पति का अर्थ है स्वामी और नाथ का अर्थ है मालिक या भगवान। इसका मतलब यह कि संसार के समस्त जीवों के स्वामी या भगवान हैं पशुपतिनाथ। दूसरे अर्थों में पशुपतिनाथ का अर्थ है जीवन का मालिक। माना जाता है कि यह लिंग, वेद लिखे जाने से पहले ही स्थापित हो गया था। पशुपति काठमांडू घाटी के प्राचीन शासकों के अधिष्ठाता देवता रहे हैं। पाशुपत संप्रदाय के इस मंदिर के निर्माण का कोई प्रमाणित इतिहास तो नहीं है किन्तु कुछ जगह पर यह उल्लेख मिलता है कि मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में कराया था।           605 ईस्वी में अमशुवर्मन ने भगवान के चरण छूकर अपने को अनुग्र

श्री जगन्नाथ भगवान् के श्री विग्रह का स्वरूप बड़ी-बड़ी आंखों वाला क्यों है ?

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            एक बार द्वारिका में रुक्मणी आदि रानियों ने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे श्रीकृष्ण व गोपियों की बचपन वाली प्रेम लीलाएं सुनना चाहतीं हैं । पहले तो माता रोहिणी ने अपने पुत्र की अंतरंग लीलाओं को सुनाने से मना कर दिया।किन्तु रानियों के बार-बार आग्रह करने पर मैया मान गईं और उन्होंने सुभद्रा जी को महल के बाहर पहरे पर खड़ा कर दिया और महल का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया ताकि कोई अनाधिकारी जन विशुद्ध प्रेम के उन परम गोपनीय प्रसंगों को सुन न सके । बहुत देर तक भीतर कथा प्रसंग चलते रहे और सुभद्रा जी बाहर पहरे पर सतर्क होकर खड़ी रहीं। इतने में द्वारिका के राज दरबार का कार्य निपटाकर श्रीकृष्ण और बलराम जी वहां आ पहुंचे । उन्होंने महल के भीतर जाना चाहा लेकिन सुभद्रा जी ने माता रोहिणी की आज्ञा बता कर उनको भीतर प्रवेश न करने दिया । वे दोनों भी सुभद्रा जी के पास बाहर ही बैठ गए और महल के द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगे । उत्सुकता वश श्रीकृष्ण भीतर चल रही वार्ता के प्रसंगों को कान लगा कर सुनने लगे।           माता रोहिणी ने जब द्वारिका की रानियों को गोपियों के निष्काम प्रेम के भावपूर्ण प्